मरघट पे कोरोना नाची रे….

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

पंडित जॉन अली जब भी घर के अंदर बोरियत महसूस करते बालकनी में आकर खड़े हो जाते। उनकी देखा-देखी मैं भी बालकनी में पहुंच जाता। मुझे देखते ही पंडित जी ने आवाज़ दी,‘मियां! अब तो तू हे चाय के लिए भी नहीं कह सकता। क्या पता किस दिन कोरोना हमला कर दे? कोरोना पहले तो चाइनीज था, लेकिन हिंदोस्तान में आते ही सांप्रदायिक हो गया। ऐसा खौफ है कोरोना का कि धर्मगुरुओं को भी भय की गुफाओं से बाहर निकालने के लिए प्रधानमंत्री को अपील करनी पड़ रही है। हालात सामान्य होते तो धर्म गुरु कोरोना से निपटने के लिए अब तक मजहब के न जाने कितने दंड पेल चुके होते।’ मैंने बोला, पंडित जी, जो धर्म गुरु बाहर था वह तो ऊपर वाले के नाम पर अब तक की सारी मेहनत पर पानी फेरने के बाद खुद क्वारंटाइन के नाम पर न जाने कहां घटाटोप हो गया। खुदा के साथ वह भी ढूंढे नहीं मिल रहा। खुदा बाहर ढूंढे़ से मिलता नहीं और आदमी भीतर घुसना नहीं चाहता। अगर भीतर टिक सकता तो लॉकडाऊन का पालन करने के लिए सरकार को सख्ती क्यों करनी पड़ती।  हम दोनों से ही घर के अंदर नहीं टिका जाता तभी तो बार-बार बालकनी में आ जाते हैं। आदमी भागता खुद से है और नाम देता है ़खुदा की तलाश का। भय बाहर है या भीतर, सारी उम्र यही पता करने में चली जाती है। सिनेमा, मॉल, बार, पब आदि की तरह बाहर दिल के बहलाने के लिए कभी धर्म या मजहब, कभी खुदा या भगवान, कहीं मंदिर या मस्जिद, कहीं गिरजे या गुरुद्वारे के नाम पर कोई न कोई जरिया ढूंढ लेता है।‘वत्स! कहते तो सही हो। बीमारी कब धर्म देख कर आती है, जो शरीर संक्रमित हुआ, समझो उसे कोरोना चिमट गया। मुझे तो एक ही बात समझ में आती है। जब से धर्मों के मरकज बंद हुए हैं, दुनिया वैसे ही चल रही है। जैसे सूरज निकलता है, वैसे ही चांद-सितारे। पानी भी पहले जैसे ही बरस रहा है। हवा में आलूदगी कम हो गई है। अपराध कम हुए हैं। अबलाओं का निर्भया बनना लगभग बंद हो गया है। पक्षी खूब चहचहाने लगे हैं, लेकिन आदमी का लालच वैसा ही है। कुछ ज्यादा दाम वसूलने में लगे हैं तो कुछ घरों में जरूरत से ज्यादा सामान इकट्ठा कर रहे हैं। कारोबार भय और लालच का है मियां, चाहे धर्म हो या बिजनेस। आजकल धर्म के ठेकेदार छिप गए हैं तो व्यापारी मुखर हैं। सच्चाई यह है कि हमें न धर्म का पता है और न विज्ञान का। दोनों के बारे में हम वैसे ही बात करते हैं जैसे कुछ दशक पहले तक चांद के बारे में करते थे। वह बोले। मैं बोला, पंडित जी, इस आपातकाल में भी लोग नफरत भरे संदेश और वीडियो ऐसे पोस्ट कर रहे हैं मानो ईद या दिवाली की मिठाई बांट रहे हों। पंडित जी बोले, ‘अमां यार! हकीकत में हमारी जिंदगी में धर्म का रोल उतना भर है, जैसे कोरोना के मरीज के इलाज में वेंटिलेटर का। मरीज ठीक तो वेंटिलेटर दूर। जिंदगी नॉर्मल होते ही आदमी पत्थर हो जाता है। बताओ बाहर से आकर उसे ठीक कौन करेगा। कोशिशें तो खुद ही करनी होंगी। तयशुदा फासला रखना होगा, साफ-सफाई रखनी होगी, बीमार हुए तो दवा-दारू भी करना होगा। जो खुद का ख्याल नहीं रखता, वह खुदा को कैसे समझेगा। ़खैर! ़िफलहाल मेरा मन मोहम्मद रफी के गीत, ‘‘मधुबन में राधिका नाची रे’’ पर यह पैरोडी गाने का हो रहा है। लो तुम भी सुनो, ‘मरघट में कोरोना नाची रे, मौत की मुरलिया बाजी रे।