आयोग देगा सामाजिक सुरक्षा

प्रवासी मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा और एक बेहतर रोजगार के नाम पर उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कुछ लकीरें खींचने की कोशिश की है। फोकस उस जमात पर है, जिसे नौकरी या काम-धंधे की खातिर अपना गांव, घर और राज्य भी छोड़ना पड़ता है और किसी महानगर में अराजक जीवन जीना पड़ता है। मुख्यमंत्री ने ‘मजदूर कल्याण आयोग’ बनाने की घोषणा भी की है। फिलहाल तय आधार पर नहीं कहा जा सकता कि आयोग से प्रवासी मजदूरों के लिए रोजगार के बेहतर आयाम खुलेंगे या उनकी उप्र तक ही सीमाबंदी कर दी जाएगी! बेशक योगी की नीयत और लक्ष्य नेक होंगे, लेकिन भारत के संविधान में कहीं भी यह प्रावधान नहीं है कि एक मुख्यमंत्री मजदूरों या कामगारों पर यह बंधन थोपे कि राज्य से बाहर नौकरी, रोजगार के लिए संबद्ध राज्य सरकार या उद्योग को राज्य सरकार से अनुमति लेनी पड़ेगी। श्रमिक बंधक नहीं बनाए जा सकते। इसी तरह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार की अधिकृत अनुमति की भी संवैधानिक अनिवार्यता नहीं है। बेशक आयोग बनाया जा सकता है। राज्यों में महिला, अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति/जनजाति सरीखे कई आयोग होते हैं। यह एक राज्य सरकार का संवैधानिक विशेषाधिकार  भी है। विशेष परिस्थितियों में विधानसभा से भी इस आशय के प्रस्ताव पारित करा आयोग गठित किए जा सकते हैं। बेशक एक मुख्यमंत्री अपने राज्य में मजदूरों का डाटा बैंक बनवा सकता है, उनके कल्याण का कोष भी बनाया जा सकता है, उद्योगों को परिभाषित कर सकता है, श्रमिकों के हुनर को तराशने के प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर सकता है, उन्हें बेरोजगारी भत्ता और बीमा सुरक्षा के लाभ आदि मुहैया करवा सकता है, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 19 की मूल व्याख्या परिवर्तित नहीं कर सकता। हालांकि व्याख्या को लेकर मत-भिन्नता है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अनुच्छेद 19 के कुछ उपबंध ऐसे हैं, जिनमें मजदूर की स्वतंत्रता बाधित नहीं होती। कुछ अनुच्छेद 19 की आत्मा ही यह प्रावधान मानते हैं कि कोई भी भारतीय नागरिक स्वेच्छा से, काम और रोजगार के लिए, देश के किसी भी कोने में जाने और काम-धंधा करने को स्वतंत्र है। बेशक योगी भी उप्र वाले श्रमिकों को अपने राज्य तक बांध कर रखना नहीं चाहते, लेकिन उनके प्रति उनका एक विशेष सरोकार है। कोरोना, लॉकडाउन और पलायन के मौजूदा दौर में मुख्यमंत्री ने भी मजदूरों की दुर्दशा, बेबसी और लाचारी देखी-समझी है। करीब 23 लाख प्रवासी मजदूर अभी तक उप्र लौट चुके हैं। अधिकतर 1321 रेलगाडि़यों के जरिए आए, जबकि करीब 2.5 लाख मजदूर बसों से भी लौटे हैं। पराजित, थके-हारे, भूखे-प्यासे लोगों की सड़कों पर भीड़ भी देखी गई है और श्रमिक रेल की पटरी तक पर कटकर मरे हैं। बेशक देश में सबसे अधिक मानव-शक्ति उप्र के पास ही है और उसके मजदूर मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, बंगलुरू आदि महानगरों में जाकर काम करते रहे हैं। अब आयोग बनाने का मतलब यह भी है कि राज्य सरकार को जानकारी रहे कि कौन मजदूर किस राज्य में काम कर रहा है, उसका रोजगार कैसा है और उसे वेतन, अन्य सामाजिक सुरक्षाएं क्या उपलब्ध कराई जा रही हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि मजदूर किन परिस्थितियों में बसा हुआ है। इन मुद्दों पर योगी ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से बहसनुमा बात भी की है। शायद यही कारण है कि जैसे ही आयोग की बात सार्वजनिक हुई, तैसे ही पलट कर एमएनएस पार्टी के अध्यक्ष राज ठाकरे और उनके प्रवक्ताओं ने नई मांग उठा दी कि जो भी मजदूर मुंबई आएगा, उसका बाकायदा पंजीकरण कराया जाना चाहिए और वह रिकॉर्ड पुलिस के पास रहे। यह नया विवाद है और अनुच्छेद 19 की मूल भावना को खंडित भी करता है। इतिहास गवाह है कि मुंबई में उत्तर भारतीयों को मारने-पीटने वाली ताकतें कौन थीं? आज हम उस अध्याय को खंगालना नहीं चाहते, लेकिन अपने श्रमिकों की चिंता करने में योगी और उप्र ही अपवाद नहीं हैं। झारखंड सरकार के इसी दौर में मजदूरों और संक्रमित कोरोना मरीजों को लेकर बंगाल, बंगलुरू और छत्तीसगढ़ की सरकारों के साथ विवाद हुए हैं, आपत्तियां दर्ज कराई गई हैं। आखिर जनता के प्रति जवाबदेही तो राज्य सरकारों की भी होती है। उन संदर्भों में कोई आयोग बनता है, तो स्वागत योग्य है। यदि मजदूरों को ढाल बनाकर सियासत की जंग लड़ी जाती है और संविधान की अवहेलना होती है, तो वह कभी भी स्वीकार्य नहीं होगा।