लेखनी के आगे कोरोना की क्या बिसात

जगदीश बाली

मो.-9418009808

कर्फ्यू के भीतर साहित्यिक जिंदगी-7

मन के ताले खोले बैठे साहित्य जगत के सृजन को कर्फ्यू कतई मंजूर नहीं। मुखातिब विमर्श की नई सतह पर और विराम हुई जिंदगी के बीचों-बीच साहित्य कर्मी की उर्वरता का कमाल है कि कर्फ्यू भी सृजन के नैन-नक्श में एक आकृति बन जाता है। ऐसे दौर को हिमाचल के साहित्यकारों, लेखकों और पत्रकारों ने कैसे महसूस किया, कुछ नए को कहने की कोशिश में हम ला रहे हैं यह नई शृांखला और पेश है इसकी सातवीं और अंतिम किस्त…

आजकल सोशल डिस्टेंसिंग में इस उम्मीद से गुज़र-बसर कर रहा हूं कि कोरोना से बच जाऊंगा और अपने पोते-पड़पोतों को कोरोना से जुड़े किस्से ज़रूर सुनाऊंगा। एक अदृश्य विषाणु के डर से पसरे सन्नाटे में हम जि़ंदगी की जुस्तजू में कैदी की जि़ंदगी जीने को मज़बूर हैं। कोरोना से लड़ने के लिए हमने भी ताली, थाली सब पीटा और दीये भी जलाए, पर इस कोरोना का अभी तक कोई हबीब न मिला। इस कोरोना काल में शहर से दूर अपनी तो गांव में बढि़या निभ रही है। जब घर में मन नहीं लगता तो निकल पड़ता हूं खेतों की तरफ और सेब के पेड़ों के साये में बैठ जाता हूं। पत्तों को हिलाती शीतल बयार की सोहबत में तफ़सील और तसल्ली से खुद में झांकता हूं। सवाल उभरते हैं- इंसानी जि़ंदगी का सबब आखिर क्या है? उधर सोशल मीडिया में कवियों और लेखकों का तांता लगा है। वाकई कलम कहां कोरोना से डरती है। कोरोना का कुछ बिगड़े चाहे न बिगड़े, पर कलमवीर ताबड़तोड़ लिख रहे हैं। इस अंतराल में अपनी कलम को भी खुजली मिटाने का भरपूर मौका मिल रहा है। विचार प्रस्फुटित होकर कागज़ पर उतर ही आते हैं। शाम तक यह खुजली मिटती है, पर सवेरे कुछ कहने को कलम फिर आतुर हो उठती है। खुद को कुरेदते-कुरेदते कलम बोल उठी, ‘अराइशों में छुपे नहीं देख पाता आदमी अपनी सीरत के दाग़। उसे चाहिए चश्मा जिससे देख सके वो अपने भीतर के दाग।’ इस सन्नाटे में परिंदों की आवाज़ें स्पष्ट सुनाई देने लगी हैं और लगता है जैसे उन्हें भी सन्नाटे का एहसास हो चला है। अपना कवि मन कह उठा है-‘चहक रही फुनगी से पशोपेश में चिडि़या, पूछ रही उस मुंडेर से मशकूक गौरैया। पसरी शहर में आज कैसी ये वीरानगी, आ गए कौन नगरी मा बताओ तो भैया।’

सोशल डिस्टेंसिंग को अपनाते हुए न हाथ मिला पा रहे हैं और न गले मिल पा रहे हैं। इस टीस को कलम ने यूं बयां किया, ‘ये आदमी तो बड़ा अजीब निकला, पास था जो अपना रकीब निकला। कोरोना के इस काल खंड में देखा, बहुत दूर था जो बड़ा करीब निकला।’ कोरोना से जुड़े पहलुओं पर कई लेख लिख डाले। इधर कोरोना वीर कोरोना के उठते जख्म को दवा देने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं कुछ ऐसे भी निकले जो यहां-वहां, जहां-तहां थूक-थूक कर इन जख्मों को हवा देने में लगे रहे। इन थूकने वालों के लिए अनायास ही शब्द निकल पड़ा-‘थूकैये’। अपने शब्दों के जखीरे में एक नया शब्द शामिल करने के लिए अपनी ही पीठ ठोक डालता हूं। कुछ कविताओं का वाचन भी फेसबुक पर कर डाला। लॉकडाउन और कर्फ्यू के बीच कई मजदूर घरों के लिए पैदल ही सड़क पर निकल पड़े, तो दिल से ये लफ़्ज़ फूट पड़े-‘हाय सड़क पर ये अभागे पांव किधर जाएंगे, जि़ंदगी का बोझ ढोते-ढोते अपने घर जाएंगे। कोरोना से जो बच गए तो फिर इधर आएंगे, भूख से न बच पाए तो खुदा के घर जाएंगे।’ इसी बीच पालघर में उग्र भीड़ ने जब दो संतों सहित एक ड्राइवर की हत्या कर दी तो मन विषादित होकर कह उठा-‘आज फिर सिसक-सिसक कर रोई है इंसानियत। आज फिर रक्तरंजित हुए हैं आदमी के हाथ इंसानियत के कत्ल से, हां ये भीड़ है, मेरे देश की उन्मादी भीड़।’ इसी बीच अभिनेता इरफ़ान खान के इस दुनिया से अलविदा होने पर मन विषादित हुआ और उनकी वो बड़ी-बड़ी बोलती आंखों के साथ ये संवाद याद आया- ‘शैतान की सबसे बड़ी चाल ये है कि वो सामने नहीं आता।’ ऐसा ही शैतान है कोरोना। अगले ही दिन चुलबुल हसीन चेहरे वाले अभिनेता ऋषि कपूर भी चलते बने और बॉबी फिल्म का गाना याद आया-‘अंदर से कोई बाहर न जा सके, सोचो कभी ऐसा हो तो क्या हो…।’ सोचना क्या, ये सब तो अब सामने है। मालूम नहीं कोरोना कब जाएगा। ‘कोरोना, तुमने खूब रुलाया है, धुलाया है, सिखाया है, पढ़ाया है, लिखाया है। तुम बहुत याद आओगे, तुम्हें नहीं भूलूंगा।’