लो गांव आ गया

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक

अचानक बस मेरे पास रुकी और पुष्प गुच्छ देकर एक व्यक्ति मुझे भीतर बैठने का आग्रह करने लगा। वह मुझे मेरे घर तक छोड़ने का वादा कर रहा था। इतने में ही विपरीत दिशा से आ रही बस भी रुक गई और कमोबेश उतने ही फूलों सहित मेरे साथ पुनः उसी राज्य में छोड़कर आने का वचन देने लगा, जहां से पैदल निकल कर मैं घर की तरफ जा रहा था। मैं अपना वजूद टटोलने लगा, जो आज तक नहीं हुआ, क्यों होने लगा। मैंने पत्थर जैसे अपने शरीर को नोच कर देखा कि कहीं सपना तो नहीं, लेकिन दोनों बसों को मेरा जैसा यात्री चाहिए था ताकि देश की संवेदना बची रहे। अब प्रश्न एक ही था, लेकिन दो बिंदुओं पर फैसला नहीं कर पा रहा था कि घर लौटूं या फिर काम की जगह पहुंच जाऊं। बसों के संचालक समझा रहे थे कि उनकी बसें एकदम सुरक्षित और सियासत से दूर हैं। ये बिल्कुल मजदूरों के काबिल हैं। मेरे सामने एक बस कांग्रेस तो दूसरी भाजपा समर्थक थी। एक मुझे घर तो दूसरी काम पर ले जाना चाहती थी। आजादी के बाद पहली बार मजदूर के लिए भी आवभगत शुरू हो गई, लिहाजा सोचा कि इसका भी टेस्ट करवा लूं। कांग्रेस सेवा दल ने कहा कि वह कहीं अधिक पॉजिटिव है, जबकि भाजपा के लिए सारे हालात पॉजिटिव थे ही, इसलिए उसी की बस में बैठ गया। भीतर मेरे जैसे कई थे और न जाने कब से बस में थे। बस की खुशी में मैंने जय श्री राम का नारा लगाया, तो ड्राइवर जोश से भर गया। अब मैं उसके बगल की फ्रंट सीट पर था। पहली बार सड़क मेरे नीचे से गुजर कर पीछे निकल रही थी। न थकने वाली सड़क पर थके-हारे लोग पैदल चल रहे थे। मजदूर कभी घर नहीं लौटना चाहता और उसके लिए घर के मायने तो मजदूरी होते हैं। ड्राइवर ने पूछा आज तक कितने घरों का निर्माण किया। मेरी अंगुलियां यकायक गिनती में खुद को ताकतवर मानने लगीं। बचपन से घर ही तो बना रहा था। मुंबई के तमाम घरों के बीच मुझे यह फुर्सत कभी नहीं रही कि पलट कर किसी दिन ईंट-मसाले के भीतर घर को आबाद होते देखूं। पीछे पूरी बस में हर मजदूर अपने-अपने मकसद की बात कर रहा था। हर किसी को जमीन पुकार रही थी, मुझे भी उसी तरह लौटना था जैसे हर साल बरसात में उफनती गांव की नदी बाढ़ बनकर लौटती थी। संयोग यह कि इस बार हम पहचाने गए। हम पर देश चर्चा कर रहा है। नेता पहली बार गिड़गिड़ाए कि उनकी बस में यात्रा करें, वरना मजदूर तो वर्षों से चल रहा है। इस बार उसे चलाया जा रहा है। मुंबई की ऊंची इमारतों से कहीं दूर गांव की मिट्टी उड़ रही थी, सभी ने कहा गांव आ गया है। यह वही गांव है जो हर बार हमें दूर बहुत दूर खदेड़ता रहा है। पहली बार गांव को देखकर लगा कि इसका आंचल तो मां सरीखा है। हजारों मील की थकान का मिट्टी से स्पर्श बिल्कुल मरहम की तरह और रिसते जख्मों की दास्तान में फिर मेरी कहानी किसी नेता को पसंद आएगी। अब तो कोरोना के बाद शायद चुनाव भी मास्क पहन कर आए, कुछ इसी उम्मीद में बस पर चिपके इश्तिहार का ऋणी हो गया।