टेढ़े प्रश्न जरूरी

कोरोना काल ने बेशक हर तरह के फैसलों की हजामत की है, लेकिन सरकारों की हिम्मत का पसीना सूखता नहीं। हिमाचल की मंत्रिमंडलीय निगाहों से देखें तो सरकारी क्षेत्र की प्राथमिकताएं न रुकेंगी और न ही झुकेंगी। आखिर पीटीए, पैट व पैरा टीचरों की जो जमात पिछले करीब दो दशकों सालों से खड़ी हुई थी,उसे अंततः पूरी तरह सरकारी होने का उपहार मिल गया। करीब दस हजार शिक्षक अपनी अप्रत्यक्ष नियुक्तियों के प्रत्यक्ष सेवा लाभ लेकर  हिमाचल की शिक्षा नीति का अनुकरणीय उदाहरण बन गए। इस फैसल का कानूनी पक्ष वाया सुप्रीम कोर्ट मजबूत था, फिर भी यह गजब की वचनबद्धता है जिसे सरकारी खजाने की मार्फत हम देखते रहते हैं। हिमाचल के शिक्षा विभाग के तजुर्बे भी खास हैं और इसीलिए 2001 से ही कभी ग्राम विद्या उपासक योजना, तो कभी प्राथमिक सहायक अध्यापक योजना के तहत शुरू हुई भर्तियां चुपके-चुपके आगे बढ़ती रहीं और किसी ने टोका भी नहीं कि  नीति के तहत न ये स्थायी होनी थीं और न ही समाहित। खैर सत्ता के लिए दस हजार परिवारों के लिए खुशियां देना बेशक अधिक जरूरी रहा और इसलिए तारीफों के पुल के नीचे से शिक्षा की गुणवत्ता गुजर जाएगी या कहीं प्रशिक्षित बेरोजगार शिक्षकों की आहें दुबक जाएंगी। यहां मंत्रिमंडल के फैसलों की झीनी चादर के इस ओर सरकारी कर्मचारी जो मांगेगा मिलेगा, लेकिन दूसरी ओर निजी क्षेत्र को क्या मिलेगा इस पर भी गौर करना होगा। कोरोना महामारी के बावजूद सरकार के प्रयास इश्तहारी रहेंगे, तो यथार्थ के महासंग्राम में आर्थिक किश्तियां टूटेंगी। हिमाचल के संदर्भ में निजी स्कूल, होटल एवं पर्यटन इकाइयां तथा परिवहन क्षेत्र की मिलकीयत में अगर क्रांतिकारी फैसले नहीं होते हैं, तो हालात के बंधनों से मुक्ति का रास्ता नहीं मिलेगा। कम से कम सरकार अपनी ओर से प्रयास करती हुई दिखाई दे रही है कि इतनी क्षमता है कि हिमाचल को कोरोना काल के दबाव भी सख्त फैसले लेने को मजबूर नहीं कर सकते, ताकि रूटीन की तस्तरी में जनता को फूल दिखाई दें। दूसरी ओर निजी क्षेत्र का दम अगर घुटता रहा, तो हिमाचल का वर्तमान आर्थिक परिदृश्य पूरी तरह अपाहिज हो जाएगा। प्रदेश में निजी बसों की उपयोगिता व इनके संचालन से जुड़ी आर्थिकी से न केवल एक वर्ग लाभान्वित होता है, बल्कि सरकार के खजाने में भी बहुत कुछ आता है। ऐसे में न्यूनतम किराए की दर बढ़ाना या कोरोना काल में किराया बढ़ाना असंभव नहीं था, तो हिमाचल सरकार ऐसा न करके क्या संदेश दे रही है। क्या कोई ऐसा गणित हिमाचल में ईजाद हो गया, जो बसों की आधी-अधूरी यात्री क्षमता में मौजूदा किराए पर चला दे या बिना फीस उगाही के निजी स्कूलों का संचालन कर दे। क्या बिना सरकारी दखल के बंद पड़ा पर्यटन क्षेत्र फिर से सक्रिय हो जाएगा। हमने पहले भी एक श्रृंखला में क्रमबद्ध करने की कोशिश की है कि कोरोना काल ने ऐसी ‘आर्थिक अनिवार्यता’ पैदा की है, जिसके तहत सरकारी व सामाजिक सोच को हर सूरत में बदलना होगा। बेशक सरकार ने आर्थिक गति देने के लिए पर्यटन व परिवहन क्षेत्र को सस्ते ऋण की पेशकश की है या यूं कहे कि दो साल के लिए आधा ब्याज प्रदेश चुकाएगा, लेकिन इस वक्त निजी क्षेत्र में न तो कोई महत्त्वाकांक्षा बची है और न ही ऋण उठाने का साहस दिखा कर वह अपना व्यापारिक मॉडल आसानी से बदल सकता है। निजी क्षेत्र की समस्याएं जमीनी हकीकत से जुड़ी हैं, अतः इन आपात परिस्थितियों से निकलने के लिए अगर बिजली की दरें महंगी की जा सकती हैं, तो किराया दर में न्यायोचित वृद्धि क्यों नहीं। यह इसलिए भी कि इस वक्त सरकारी बसें भी अलाभकारी परिवहन की असफल कहानी ही ढो रही हैं,जबकि ज्यादातर लोग निजी वाहनों में घूम रहे हैं। प्रदेश के बाजारों और कृषि उत्पादों को बाजार देने की भूमिका में निजी बसें एक बड़ी धुरी घुमाती रही हैं, जो आजकल बंद है। ऐसे में सरकार ने जो फैसले लिए हैं, वे एकतरफा मुनादी में अपनी छवि का मास्क चढ़ा कर लिए हैं। आर्थिक खुशहाली का अर्थ केवल जनता की खुशामद नहीं और न ही ऐसे समाजवाद में जीकर हम कोरोना के दुष्प्रभाव से बाहर निकल पाएंगे। मंत्रिमंडल की आगामी बैठकों में सरकार को यथार्थपरक होकर मौके की नजाकत को समझना होगा, वरना पुराने आर्थिक व सामाजिक चक्र अवरुद्ध होकर ध्वस्त हो जाएंगे।