आध्यात्मिक जगत

बाबा हरदेव

आध्यात्मिक जगत में चाह (परमात्मा की चाह) और प्यास (परमात्मा की प्यास) में जमीन-आसमान का अंतर है। चाह में आक्रमण है, प्यास में केवल प्यास है, क्योंकि चाह खोजने निकलती है, जबकि प्यास प्रतीक्षा करती है। चाह सक्रिय है, प्यास निष्क्रिय है। चाह का अर्थ होता है मैं पा कर रहूंगा। जोर मैं पर है, जोर पाने पर होता है। जोर अपनी शक्ति पर है, जोर अपने अहंकार का है, जबकि प्यास कहती है मिले तो सौभाग्य न भी मिले तो भी कोई शिकायत नहीं। इस प्रकार प्यास में मैं का जोर नहीं है, प्यास में प्रयत्न महत्त्वपूर्ण नहीं है, इसमें प्रसाद महत्त्वपूर्ण है जो कि प्रभु-परमात्मा की कृपा पर निर्भर है। चाह का भरोसा अपने पर है और यही कारण है कि चाह कई बार अध्यात्म में बाधा बन जाती है, क्योंकि जो ईश्वर को सक्रिय रूप से खोजने लगते हैं अक्रामक की तरह, हिंसक की तरह, वे ईश्वर को कभी उपलब्ध नहीं होते, क्योंकि ईश्वर खोजने से नहीं मिलता, स्वयं को खो देने से मिलता है। खोजता था खोजते-खोजते, ढूंढते-ढूंढते मैं ही खो गया और जब मैं खो गया तब इससे (परमात्मा से) मिलन हुआ। अब चाह में तो मैं बना ही रहता है, चाह तो मैं का ही विस्तार है। जबकि प्यास में मैं का बुझ जाना है, मैं का मिट जाना है। प्यास कहती है मैं नहीं हूं, तू है। चाह कहती है दुनिया को यह करके दिखा दिया जाएगा कि मैं भी कुछ हूं। धन मैंने पाया, पदवी भी मैंने प्राप्त की, अब अध्यात्म भी पाकर रहूंगा। मानो चाह परमात्मा को भी मुट्ठी में बांधना चाहती है, जबकि प्यास केवल हृदय का खुलना है। सद्गुरु कृपा कर दे, तो कर दे वरना कोई गिला नहीं है, शिकायत नहीं है क्योंकि मनुष्य की पात्रता में ही क्या है, औकात ही क्या है। इससे स्पष्ट होता है कि चाह का अर्थ है कि परमात्मा आखिर मिलेगा कैसे नहीं? सब योजना बनाएंगे, उपाय करेंगे, योग करेंगे, जप-तप, वर्त, तीर्थयात्रा आदि करेंगे अर्थात जो भी किया जा सकता है, वह करके दिखाएंगे, अपनी योग्यता प्रमाणित करेंगे, फिर परमात्मा को मिलना ही पड़ेगा। हमारे प्रयास निष्फल नहीं जाएंगे। चाह पुरुषार्थ का भाव है। चाह परमात्मा को भी अपना एक विषय बनाना चाहती है जैसे साधारण व्यक्ति ने धन को, पदवी को, प्रतिष्ठा को, यश को एक विषय बना रखा है। चाह विजयी यात्रा पर निकलती है और संसार पर अपनी विजय का झंडा लहराना चाहती है। प्यास विनम्र है। यह किसी प्रकार की विजय यात्रा नहीं है। अपितु हार की आकांक्षा है कि पूर्ण सद्गुरु के चरणों में कब हार जाने, मानो पूर्ण समर्पण अथवा सहज समर्पण करने का अवसर मिलेगा। प्यास मिटना जानती है, जबकि चाह मिटना नहीं जानती। चाह तो अपने को भरने का भाव है। विद्वानों का कथन है कि चाहोगे तो चौंकोगे, खोजोगे तो कभी नहीं पाओगे, अध्यात्म में तो पूर्ण प्यास चाहिए।