फिर पंचायती समुद्र का मंथन

स्थानीय निकाय चुनावों की तरफ बढ़ते हिमाचल के कदम अगर मंजिल और मकसद की स्पष्टता में जाहिर होते हैं, तो नवंबर-दिसंबर के बीच लोकतंत्र पुनःकरवट लेगा। ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री वीरेंद्र कंवर ने इस आशय का ऐलान करते हुए इरादे जाहिर किए हैं। कोरोना काल के मध्य ऐसी साहसिक घोषणा के राजनीतिक व सामाजिक अर्थ हैं और यह भी कि वर्तमान सरकार के लिए यह चुनावी हसरतों को हिंडोले पर बैठाने जैसा मंतव्य रहेगा। हिमाचल की 3226 पंचायतों और 52 नगर निकायों की चुनावी फेहरिस्त में नागरिक समाज की उत्कंठा व कुंठाओं का भी मुकाबला होगा। यह ग्रामीण विकास के संदर्भों में रोजगार, खेती बाड़ी, सरकार की वचनबद्धता तथा राष्ट्रीय योजनाओं के साथ-साथ जनप्रतिनिधियों के कामकाज का मूल्यांकन भी करेंगे। हिमाचल के लिए पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव दरअसल अस्सी फीसदी आबादी के मताधिकार का ऐसा मुआयना है, जो राजनीतिक तौर पर प्रदेश के सामने कई तरह के शक्ति परीक्षण पेश करते हैं। स्थानीय तौर पर कई बार मुद्दों की बिसात जातिवाद से भर जाती है या आपसी खिन्नता के बीच मत प्रतिशत उदासीन हो जाता है, फिर भी एक आशावादी युग उस आधी आबादी में दिखाई देता है जहां पचास फीसदी महिलाओं के लिए आरक्षण तय है। यही वजह है कि अब कई युवा चेहरे और खास तौर पर प्रदेश की पढ़ी लिखी बेटियों ने पंचायतों के माध्यम से पर्वतीय क्रांतियों का रुख मोड़ा है। मंडी की थरजूण पंचायत की प्रधान जबना चौहान ने राष्ट्रीय स्तर पर खुद को बुलंद करते हुए यह साबित किया कि इस क्षेत्र में हिमाचली बेटियां स्वतंत्र, निष्पक्ष, कर्मठ और परिवर्तनशील ढंग से हर चुनौती का सामना करने में सक्षम हैं। प्रदेश भर में पंचायती राज संस्थाओं की उपलब्धियों का वर्णन अब व्यवस्था में युवा व अतिशिक्षित समाज को प्रतिबिंबित कर रहा है, तो चुनाव की आहट से फिर राजनीतिक समुद्र का मंथन होगा। जाहिर है प्रदेश विधानसभा चुनावों से कहीं भिन्न अगर स्थानीय निकायों के चुनाव ठहरते हैं, तो विषयों को परिभाषित करता मंजर हर बार परिपक्व होता है। स्थानीय स्तर पर पंचायत के मुद्दे अब पर्यावरण, आवारा पशुओं, बंदरों की बढ़ती तादाद पर प्रश्न उठाते हैं, तो यह लोकतांत्रिक अधिकारों की सबसे निचली इकाई का उच्च प्रकटीकरण भी है। लिहाजा पंचायत प्रतिनिधि होना अब सामाजिक व्यवहार की अनूठी जांच परख है। दूसरी ओर नगर निकाय चुनावों की फांस में नगर नियोजन कानून के प्रति संवेदनशीलता की कमजोरी व लाचारी परिलक्षित होती है। आम तौर पर शहरी निकायों के चुनाव में केवल सियासी सरलता व तरलता का परिचय ही मिलता है। यह शहरीकरण के प्रति आज भी अंगभीर परिचय है कि चुनावी परिदृश्य केवल सियासी शगूफा बनकर यही वादे करता है कि यथास्थिति बरकरार रहेगी। यानी न शहरी विस्तार पर चर्चा होती हैं और न ही वित्तीय संतुलन पर समाज अपने योगदान की हामी भरता है। ऐसे में स्थानीय निकाय चुनावों में हिमाचली समाज फिलहाल ऐसे उम्मीदवारों को ही प्रायः चुनना पसंद करता है, जो केवल सरकारी योजनाओं के डाकिए बने रहें या जिनकी प्रतिभा का मूल्यांकन केवल संकीर्ण उद्देश्य की पूर्ति है। पिछले कुछ सालों से पंचायत प्रतिनिधियों के खिलाफ हुई जांच के संदर्भ खंगाले जाएं, तो सियासी पतन की पराकाष्ठा मालूम होगी। स्वयं मुख्यमंत्री जयराम ने विधानसभा सत्र में एक प्रश्न के जवाब में कहा था कि वित्तायोग से सीधे धन प्राप्ति के कारण पंचायत स्तर  पर भ्रष्टाचार बढ़ा है। इस दौरान मनरेगा के लिए आबंटित पांच सौ करोड़ में से आधी राशि का दुरुपयोग सतर्कता जांच के दायरे को देख रहा है। क्या आगामी चुनाव ऐसे प्रतिनिधि ढूंढ पाएगा जो सार्वजनिक धन की रखवाली करें या समाज ईमानदार लोगों को आगे ले पाएगा, देखना बाकी है।