घर में आयुर्वेद

– डा. जगीर सिंह पठानिया

सेवानिवृत्त संयुक्त निदेशक, आयुर्वेद, बनखंडी

निर्गुंडी के औषधीय गुण

निर्गुंडी का पांच मीटर तक ऊंचाई वाला वृक्ष होता है, जो कि प्रायः 1500 मीटर के ऊंचाई वाले क्षेत्रों तक सारे भारत वर्ष में पाया जाता है। निर्गुंडी नील पुष्पी व श्वेत पुष्पी दो तरह की होती है। इसका हिंदी नाम निर्गुंडी व संस्कृत नाम निर्गुंडी व नील पतरा है। इसका इंग्लिश नाम विटेक्स निर्गुंडो होता है। इसको पहाड़ी भाषा में बणा भी बोलते हैं।

इसमें निर्गुंडोसाइड व अगुनसाइड जैसे रासायनिक तत्त्व पाए जाते हैं। इसके पत्रों व बीजों में एक उड़नशील तेल पाया जाता है।

मात्राः 10- 20 एमएल जूस रूप में

मूल त्वक चूर्णः 3-5 ग्राम

बीजः  3-5 ग्राम

क्वाथः 7-8 सूखे पत्तों का  क्वाथ

गुण व कर्मः  यह शोथहर, विषहर, वेदना स्थापक, व्रणशोधन व व्रणरोपक, दीपन, पाचक एवं जंतु घन है ।

वातरोगों में- इसका प्रयोग सभी प्रकार के वात रोगों में जैसे गृध्रसी सर्वांग वात, अर्धांग वात, जोड़ों के दर्द, मस्तिष्क दौर्बल्य, चर्म रोगों, कास व कर्ण शूल में किया जाता है। आमवात व जोड़ों के दर्दों में जब असहनीय दर्द होता है, तो उस अवस्था में अभ्यंतर प्रयोग के साथ इसके तेल का बाह्य प्रयोग भी करना चाहिए। जानू शोफ  व दर्द में इसके पत्तों को कूटकर व गर्म कर वहां पर बांधना चाहिए। एरंड के पत्तों में रख कर बंधा जाए, तो और भी बेहतर रहेगा। गृध्रसी में भी निर्गुंडी का बाह्य व अंतः प्रयोग किया जाता है। पैरों में दर्द शोथ और थकावट हो तो निर्गुंडी पत्तों को उबाल कर उस जल में पैरों को धोना चाहिए व उसी जल में पैरों को थोड़ी देर रखना चाहिए, आराम मिलता है। आमवात में जब आरए  फैक्टर पॉजिटिव हो तो भी इसका प्रयोग लाभकर है। मोच आने पर दर्द व शोथ हो तो वहां पर भी पत्तों को कूटकर और गर्म कर बांधना चाहिए। तीव्र व जीर्ण अंड्शोथ में भी इसके पत्तों को कूटकर व गर्म कर वहां लंगोट की सहायता से बांधना चाहिए।

चर्म रोगों में- सोरायसिस, खुजली व दाद तथा अन्य चर्म रोगों में इसके क्वाथ व स्वरस का प्रयोग करना चाहिए। चमड़ी पर कोई घाव हो गया हो, तो यह उसको शुद्ध यानी साफ भी करता है और उसका रोपण भी करता है क्योंकि इसमें एंटीबैक्टीरियल गुण होते हैं।

विष विकारों में- चींटी व अन्य जीवों के काटने से वहां लालिमा व सूजन आ जाती है और वहां पर लगातार खुजली व दर्द होता है। ऐसे विकारों में इसके क्वाथ से उस जगह को धोना चाहिए या इसके तेल व घी का स्थानीय प्रयोग करना चाहिए। पुरानी प्रथा के अनुसार अपने देखा होगा की प्रसव के पश्चात माता व बच्चे को जिस कमरे में रखा जाता था वहां पर निर्गुंडी की 2-4 शाखाओं को दरवाजे पर टांग दिया जाता था क्योंकि इसकी खुशबू से ना ही बैक्टीरिया अंदर जा सकते थे जिससे संक्रमण नहीं कर सकते थे।

मुख विकारों में- अगर किसी के मसूड़े खराब हों, मुख से दुर्गंध आती हो, मुंह में छाले हों और बार बार टांसिल्स हो जाता हो तो निर्गुंडी क्वाथ से गरारे करने से यह सब व्याधियां ठीक हो जाती हैं।

कर्णशूल में- कान के नए व पुराने दर्द में या स्राव में निर्गुंडी से सिद्ध तेल कान में डालने से अभूत पूर्व लाभ होता है।

शिर शूल में: पत्तों को पीस कर व घी में गर्म कर सिर पर बांधने से पुरानी सिर दर्द दूर होती है व सिर के बाल भी उगते हैं। पुराने जमाने की कहावत है  ‘जिथू बना बसुटी वर्या, ओथू मानू कें मरया’ क्योंकि इन तीन पौधों में बहुत सी बीमारयों को ठीक करने की क्षमता है।