हिमाचल में अनलॉक साहित्य

महीनों की तालाबंदी में शुरू के चंद घंटे ‘अच्छा ही होगा’ कहने में अच्छे से बीते। मगर दिनों और फिर महीनों की तालाबंदी कारागार ही साबित हुई। जिंदगी के हजारों मेले लुट गए, खप गए। सड़कें सुनसान हो गईं और पुलिस का एकछत्र राज सर्वव्यापी हो गया। तालाबंदी का शायद पखवाड़ा ही बीता होगा कि देश में इसके विरोध में भी स्वर बुलंद हो लिए। हजारों लोगों की भीड़, न जाने कहां से कहां जाना चाहती थी, सड़कों पर निकल आई…

कोरोना काल तो न जाने कब से इनसान और वायरस के बीच अदृश्य स्वभाव के खंजर लिए चलता रहा है। जिस तरह कोरोना अपनी जीवन रचना के भेद से सारी मानव जाति के जीवन चक्र को संताप दे रहा है, यह कोई अबूझ पहेली नहीं कि जीवित प्राणी भी अपने अस्तित्त्व की निशानियों में ऐसे ही किसी संताप का कारण सिद्ध होते हैं। कोरोना से सहमे परिदृश्य में विभाजित मानसिकता के जिस खंड में डर व्याप्त है, उससे कहीं अलग लेखकों का अपना बहादुर छोर भी रहा है। भयभीत सन्नाटों में दुबकी मीमांसा में जागते-उठते साहित्य का एक अलग कालखंड बन रहा है। यहां कहानियां बदली हैं और पात्र अपना पता ढूंढते-ढूंढते लेखक समुदाय के कंधे पर बोझ डालते रहे। कविता ने कोरोना काल की तमाम विडंबनाओं से बाहर कवि मन की इम्युनिटी का परीक्षण किया, तो चारों ओर सहमे लोगों के बीच भी एक हल्की सी मुस्कराहट ने हास्य परोस दिया। कुछ ऐसी परिस्थितियों के बीच रचे गए साहित्य की यात्रा में जब ओंकार सिंह निकले, तो सामने हिमाचल के साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से मुलाकात कराई। कोरोना काल से निकले हिमाचली साहित्य की पहली झलक पेश है…

हादसों की जद में हैं तो क्या मुस्कराना छोड़ दें

बीता कल काल हो जाया करता है। ऐसे में कोरोना काल भी बीत जाएगा। लेकिन जब भी हम इसे बीतते समय के साथ याद रखेंगे या करेंगे तो बहुत सी बातें, किस्से, यादें और संदर्भ जुड़ते जाएंगे। शायद यह काल आने वाले सौ वर्ष तक याद रखा जाएगा। याद आने की वजह यही होगी कि एक अनजान से दुश्मन ने दुनिया भर के प्राणियों को पिंजरे में बंद कर दिया। इनसान सांस नहीं ले पाता था जबकि कुदरत ने इस काल को बेहतरीन हवा-पानी से नवाजा था। रचनाकर्मी इस काल को कैसे याद रखेंगे। जाहिर है शब्दों की शक्ल में कई तरह के ख्याल बुने जाएंगे, कागजों पर हजारों अनुभव उकेरे जाएंगे और ये कागज दस्तावेजों में सहेजे जाएंगे और इतिहास की शक्ल ले लेंगे। हिमाचल के शब्द शिल्पियों से जब दिव्य हिमाचल ने यह विचार साझा किया कि वे बताएं कोरोना कैसे कटा,क्या घटा और क्या पाया, क्या खोया। सृजन हुआ या फिर घुटन भरा मंथन चला। तो वरिष्ठ शब्द शिल्पी एसआर हरनोट ने ‘जंग-ए-मैदान’ से हमें मेल के जरिए जो चिट्ठी लिखी, उसका सारतत्त्व यही था कि धीरे-धीरे उन्होंने जंग जीती। शब्दों से खूब लड़े और कोरोना काल से वे उभरते गए। उनके द्वारा भेजे एक आलेख में वे गुलज़ार के शेर से शुरुआत करते हैं

सहमा-सहमा, डरा सा रहता हूं,

न जानें क्यूं जी भरा सा रहता है।’

इस दौरान हरनोट जी ने पाया कि रचनाकर्मी के लिए एकांत वरदान है, मगर बताते हैं कि कोरोना से पैदा खामोशी ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया। वे खबरिया चैनलों की चिल्ल-पाैं से बिदक जाते हैं, चौबीस घंटे कोरोना-कोरोना और मौतों की खबरों से वे डूबते आसीन होते हैं कि चिडि़यों की चहचहाहट भी उन्हें चुभन देती है। फिर दूसरे ही पल उन्हें लगता है

‘हादसों की जद में हैं तो क्या मुस्कराना छोड़ दें,

जलजलों के खौफ से क्या घर बनाना छोड़ दें।

वसीम बरेलवी का यह शेर उन्हें तन-मन से तैयार करता है। वे फिल्में देखते हैं, घर पर ढेरों नई-पुरानी किताबें खोलते हैं, उन्हें पुनः पढ़ते हैं। नई रचना से रू-ब-रू होते हैं।

कई नामी लिखारियों का सृजन परखते हैं, कुल मिलाकर अंततः वे कोरोना के साथ जीना सीख लेते हैं। एसआर हरनोट के आलेख से हमें पता चलता है कि भय से खतरनाक कुछ नहीं।  भय पर विजय पाना बेशक आसान नहीं, पर कोरोना भय से बड़ा नहीं हो सकता। सृजन की ताकत  से कोरोना हार सकता है, ऐसा हरनोट ने भी कर दिखाया।