लॉकडाउन की नौबत तक

पहले लॉकडाउन, फिर अनलॉक हिमाचल और अब लॉकडाउन होने की अर्जियां पढ़ी जा रही हैं। माहौल बनाने की फितरत में कोई उल्लंघन हुआ होगा या खुशफहमी हो गई कि वक्त बदल जाएगा, लेकिन अब जनता से ही पूछ कर एक बार फिर लॉकडाउन की जरूरत तक हिमाचल की परख हो रही है। बाकायदा एक एजेंसी के मार्फत सर्वेक्षण के माध्यम से यह पता लगाया जा रहा है कि आइंदा माहौल की सरगर्मियां क्या हों। जाहिर  है यह सवाल प्रशासनिक कूबत और सरकार के इंतजाम से ताल्लुक रखता है और इसी के मुताबिक आज जहां हम खड़े हैं, वहां सारी परिपाटी लहलहा रही है। जनता की समझ अपनी विवशताओं और परिदृश्य की मांग पर केंद्रित हो सकती है या कोरोना काल की फेहरिस्त में बदलती प्राथमिकताएं जिस तरह चकनाचूर हो चुकी हैं, उनका विश्लेषण करना होगा। इसी दौर में अगर व्यापार मंडलों ने बाजार खोलने की रियायत को सीमित करके सतर्कता का परिचय दिया, तो ऐसे आंदोलन भी मुखातिब हुए जो बैजनाथ मंदिर के कपाट खोलने के पीछे अपना मंतव्य जाहिर कर रहे थे। इसी दौर में सरकार के फैसलों की उलझन भी रही। कोरोना से बचने के लिए अगर लॉकडाउन प्रथम पहर था, तो अनलॉक होने के अर्थ में भी यह अंतिम चरण साबित नहीं हुआ। जनता स्वयं ही विभ्रम में है या अनलॉक होते मंजर में उसने खुद को इतना मुक्त कर लिया कि आवश्यक पहरे हट गए और कोई पूछने वाला भी नहीं रहा। सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क इस्तेमाल की अवहेलना जिस समाज की फितरत में दिखाई दे वहां मसला स्व अनुशासन व संयम का कहीं अधिक है। जहां लगातार सार्वजनिक व्यवहार की दरारों से कोरोना आक्रमण कर रहा हो, वहां जनता के समक्ष उदाहरणों की कमी रही है। अब जिक्र कोरोना के बढ़ते मामलों का नहीं, बल्कि नियमों से विमुख होते मंजर का है जो राज्य सचिवालय तक को अपनी गिरफ्त में ले लेता है। आश्चर्य यह कि इस दौर में जनप्रतिनिधि खुद को साबित करने के बहानों में खतरे मोल ले रहे हैं। रोहड़ू उपमंडल के भमनोली में वालीबॉल टूर्नामेंट में शिक्षा मंत्री के बेटे की शिरकत से उठा विवाद दरअसल उस ढकोसले में फंसा है, जहां राजनीतिक चरित्र हमें बार-बार फंसा रहा है।

आर्थिक मसलों की खुशामद में हुए अब तक के फैसलों पर गौर करें, तो कोरोना के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर ही बिखराव है। क्या रेहड़ी-फड़ी वाले के लिए लॉकडाउन की मिसाल कामयाब होगी या दिहाड़ीदार मजदूर की किस्मत में लगा जंग पिघल जाएगा। हिमाचल का किस्सा और भी खराब है, क्योंकि यहां जिंदगी अब बाहरी मजदूरों की पनाह में चलती है। सेब आर्थिकी जिस तरह मुंह लटकाए नेपाली मजदूरों का इंतजार कर रही है या बिना ग्राहक के दुकान में सजा सामान व्यापारी की उधेड़बुन बढ़ा रहा है, उससे पूछ कर देखें कि वह कब तक अपनी कमाई के बंद दरवाजों के भीतर जिंदा रह सकता है। सर्वेक्षण तो यह होना चाहिए कि इस दौर में कितनी दुकानें, शो रूम या रोजगार बंद हो गए। कितने होटलों, टैक्सियों और बसों के मालिक तबाह हो गए। लॉकडाउन और अनलॉक के बीच हालांकि आर्थिकी पर लगा ग्रहण एक जैसा है, फिर भी बाहर निकलने की आशा में वक्त का आगे बढ़ना ही एक राहत हो सकती है। हिमाचल में अनलॉक होने का अर्थ जिस समाज ने अपनी मुट्ठी में बंद किया है, उससे यह पूछा जाए कि कहां गई सोशल डिस्टेंसिंग और क्यों सरेआम बिना मास्क के चल रहा है काम।

शादी-विवाह या दुख के आयोजनों में तयशुदा उपस्थिति की धज्जियां उड़ाते लोगों से अगर इसके मायने पूछे जाएंगे तो कोरोना भी अपनी हदें पार करेगा। हैरानी होती है कि सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में पहले साठ फीसदी क्षमता तक ही संचालन की अनुमति थी, तो अब सौ प्रतिशत से चलकर बसें सबसे पहले स्वास्थ्य के सिद्धांत की ही अवहेलना कर रही हैं। अंततः न बंद ताले से कोरोना काल गुजरेगा और न ही जनता को विशेषज्ञ बनाकर सरकारें इस आपातकाल के दायित्व से मुक्त होंगी। यह न तो कोई सौहार्द है कि और न ही राजनीति को देवता बनाने का कोई अवसर। यह इतिहास का अद्भुत पन्ना है जिस पर कुछ शब्द सरकारों को लिखने हैं, तो कुछ सामूहिक जिम्मेदारी के पल सृजत करने हैं। इससे शायद ही कोई फर्क पड़े कि जनता लॉकडाउन या अनलॉक की गणना में किसे श्रेष्ठ बनाती है, लेकिन इससे अंतर आएगा कि देश किस तरह इस वक्त को आपस में बांटकर कोरोना के दंश को कमजोर कर पाता है। हिमाचल सरकारी नौकरी से जुड़े एक बड़े वर्ग का पसंदीदा राज्य है, इस लिहाज से अधिकांश चूल्हों की शिकायत नहीं होती, लेकिन निजी क्षेत्र की सांसों को अब विराम की जरूरत कदापि नहीं है।