मास्को, जैसा मैंने देखा

विश्व-भ्रमण

– डा. चिरंजीत परमार,  186/3 जेल रोड, मंडी

गतांक से आगे…

वे दबी जुबान में डॉलर-डॉलर बोल रहे थे। उस समय मास्को अंग्रेजी बहुत कम समझी जाती थी, इसलिए बात करने में मुश्किल हो रही थी। खैर हमने वीसीआर वहां जमा करा दिया और रसीद ले ली, जो रूसी भाषा में थी। वहां हवाई अड्डे पर और भी लोग हमारे आगे डॉलर-डॉलर गुनगुना रहे थे। यह बात कुछ देर बाद हमारी समझ में आई। दर असल वहां डॉलर का ब्लैक हो रहा था और ये लोग हमसे पूछ रहे थे कि क्या हमें अपने डॉलर देने हैं? उस समय की स्थिति यह थी कि रूसी सरकार ने एक रूबल का सरकारी मूल्य 1/5 डॉलर रखा था। जबकि वास्तविक स्थिति कुछ और ही थी। मार्केट में अगर आपको एक डॉलर लेना होता तो 11-12 रूबल देने पड़ते। ये लोग विदेशी आगंतुकों से 5-6 रूबल प्रति डॉलर, या इस से भी अधिक देकर डॉलर खरीद लेते और फिर आगे अधिक दाम पर बेच देते। मुझे स्वीडन से चलते समय हमारे डायरेक्टर ने इस बारे में सावधान कर दिया था और कहा, किसी से भी इस प्रकार का सौदा न करें, क्योंकि बहुत बार इन डॉलर खरीदने वालों में पुलिस के आदमी भी होते हैं, जो आपको बाद में तंग करेंगे। इसलिए यह लालच छोड़ कर हमने अपने डॉलर सरकारी रेट यानी डेढ़ डॉलर प्रति रूबल के हिसाब से ही बदलवाए। इस कारण हमने मास्को में बहुत कम खर्च किया। बस दो तीन सबसे सस्ते से स्मृति चिन्ह लेकर मन मार लिया। जैसे ही हम अपने होटल में पहुंचे वहां कुछ रूसी महिलाएं भी आ गईं और मेरी पत्नी को पूछने लगीं कि उसके पास कोई लिपिस्टिक या अन्य कॉस्मेटिक तो बिकाऊ नहीं हैं। ऐसा लगा वहां इन चीजों का अभाव था। उन दिनों जनवरी का महीना था और मास्को में बहुत ठंड थी। वे लोग स्नो कटर मशीनों से बर्फ  हटा कर एक तरफ  कर देते हैं। बाहर बाजार में खाने-पीने की चीजें काफी सस्ती थीं। हां जिस होटल में हम रुके थे, वहां सब कुछ बहुत महंगा था। मास्को में जिस चीज ने हमें सबसे अधिक प्रभावित किया, वह थी वहां की मेट्रो। स्टेशन और प्लेटफार्म आदि ऐसे ऐसे लगते हैं जैसे कोई पुरानी ऐतिहासिक इमारत हो। किराया केवल 10 कोपेक। इस किराए में पूरे मास्को शहर आप जहां मर्जी चले जाएं। हां मेट्रो में एक बहुत बड़ी परेशानी थी। सारे साइनबोर्ड रूसी भाषा में थे। विदेशियों को आप अपनी मंजिल पर पहुंच गए हैं या नहीं, यह पता लागाना असंभव था। क्योंकि साथ वाले मुसाफिर आपकी भाषा नहीं समझते थे। इस मुश्किल का हमने एक हल निकाल लिया। हम चलने से पहले जिस स्टेशन पर हमें उतरना होता था, उसका नाम रूसी भाषा में एक कागज पर लिखवा लेते। फिर वह चिट हाथ में पकड़े रहते और साथ बैठे मुसाफिरों को दिखाते रहते। वह हमारा तात्पर्य समझ जाते और जब भी हमारा स्टेशन आता हमको बता देते। हमने यह महसूस किया कि रूसी लोगों का रवैया हम भारतीयों के प्रति बहुत मित्रवत और उदार था। अब सुनिए वापसी में हमारे साथ क्या बीती। हम एयरपोर्ट पर ठीक समय पर पहुंच गए थे। चैक इन करने के बाद मैं अपना वीसीआर लेने कस्टम वालों के पास गया। पर वो तो जैसे अजनबी बन गए और मुझसे बहुत रूखेपन से पेश आने लगे। एक कमरे से दूसरे में भेज देते। मेरी समझ में आ गया कि ये लोग मुझसे रिश्वत चाह रहे हैं। फ्लाइट का डिपारचर अनाउंस हो चुका था और जहाज में बैठने के लिए मुसाफिरों ने लाइन लगानी शुरू कर दी थी। एक बार तो मैंने तय कर लिया कि 5-7 डॉलर इन के मत्थे मार कर पीछा छुड़वा लूं पर एक आखिरी कोशिश की और मैंने ऐसा जाहिर किया कि मैं उनकी बात नहीं समझ पा रहा हूं। थोड़ा गुस्सा भी दिखाया और इशारों से यह भी बताने की कोशिश की कि मैं उनके सीनियर अफसर के पास जाता हूं। तीर निशाने पर बैठ गया और वे मेरा वीसीआर ले आए। मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि 1989 में रूस की आर्थिकी बिगड़ चुकी थी। अपने जिस रूबल का मूल्य उन्होंने डेढ़ डालर रख रखा था, उसका वास्तविक मूल्य 8 सेंट था। आज की तारीख में एक डॉलर के 70 रूबल मिलते हैं यानी एक रूबल का मूल्य डेढ़ सेंट हो चुका है। सुनते थे कि वहां सरकारी कर्मचारियों में बेईमानी और रिश्वतखोरी बहुत बढ़ गई थी जो हमने भी देख लिया था।