न खुदा मिला, न विसाले सनम

सुरेश सेठ

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आपने पूछा, आपके व्यंग्य है कि दबे-कुचले, रोते-पीटते लोगों के दिल को छील जाने वाली सालती मुस्कराहटें? ये आपको छूती हैं तो परेशान करती है। कंधों पर सवार हो जाती हैं तो किसी बैताल कथा सी लगती हैं। बैताल तो राजा विक्रमादित्य से सवाल पूछता था, उत्तर मिलते-मिलते इतनी देर हो जाती कि उससे भुतहा जंगल पार नहीं होता। अब भी यही हाल है। फिर बैतलबा डाल पर, राजा विक्रमादित्य निराश और बाकी रह जाता है आरण्य रोदन। यहां रोने-सिसकने का सामूहिक स्वर उभरता है। कितने लोग मिलकर रो रहे होंगे यहां, भला? जवाब नहीं मिला। देश की जनसंख्या के आंकड़े उभरते हैं। पिछली जनगणना में सवा सौ करोड़ थे। अभी गिनों तो 135 करोड़ के पार हो गए होंगे। इनके अनुत्तरित प्रश्न। जी हां, आदमियों के इस जंगल में ये बूढ़े गिरते हुए दरख्त नहीं रो रहे। ये तो सही से जी पाने की वे अधूरी इच्छाएं हैं जो आज आज़ादी के 73 वर्ष गुजर जाने के बाद भी पूरी नहीं हो पाई। नारों और जुमलों के पंखों पर तैरती हुई इच्छा, जो अब पूरे होने का शुबहा भी नहीं देती। अच्छे दिन आएंगे। सबके लिए रोटी, कपड़ा और मकान लाएंगे, का कोलाहल कहीं डूब गया है। अजी, आजकल की कहानियों में सब गड़बड़ हो गया है। तुमने समझाया था, भई तेरा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और तुम सब वोटर लोग ही इसके भाग्य नियंता हो। अपने वोट की उस ताकत से जो जिसे चाहो तख्त पर बिठा दो, जिसे चाहें तख्त से उतार दो। लीजिए जनाब, चुनाव की दुंदभि बजी और हमने सोचा हम सब राजा विक्रमादित्य हो गए। छोटे-बड़े वोट दे सकने वाले विक्रमादित्य। बंधु, ये कैसे विक्रमादित्य हैं कि जिनके सिर पर ताज़ नहीं, हाथ में राजदंड नहीं, जिनके फुटपाथ पर दिवंगत सपनों का एक गलीचा बिछा है। आधी रात को क्लब घरों से गुर्राती हुई अमीरजादों की गाडि़यां गुजरती हैं तो लगता है जैसे वे किसी उड़नखटोले में बैठे हैं, जो केवल लुभावने भ्रम बांटता है। एक दिन भी उड़ान भरने का एहसास नहीं देता। एक बिगड़ा हुआ उड़नखटोला, जो एक सौ तीस लोगों का ऐश्वर्य बन गया, हर चुनाव दिवस से पहले। ठहरिए, हमें वह बैताल तो खोज लेने दीजिए, जो मतदान होने के बाद किसी ऊंचे वृक्ष की फुनगी पर जा कर लुप्त हो गया। अब उसे लाख पुकारते रहिए, वह झांक कर नहीं देखेगा। कल जिन्हें वोट डालने का इसरार करते हुए वह राजा विक्रमादित्य होने का एहसास दे रहा था, अब उन्हें पहचानता भी नहीं। अजी, यह वृक्ष की फुनगी नहीं सत्ता का हवाई मीनार है। कोई इस पर स्थापित हो जाए तो लौट कर नहीं आता। आएगा, तो अपने नाती-पोते वहां बिठा कर आएगा। पांच साल बीत गए या मध्यावधि चुनाव की घंटी बज गई। आपके फिर बीच लौट आया है, इस युग का यह बैताल! फिर हाथ जोड़ कर अपनेपन का एहसास देते हुए लौटा है। भय्या-भय्या कह कर आपके कंधे पर सवार हो रहा है। गले लिपट कर सहोदर हो गया। वह धर्म-कर्म की सुरक्षा की बात कर रहा है। देश की परंपरा और गरिमा को लौटाने की बात कर रहा है। आपको गर्व से गाने का आह्वान कर रहा है, ‘हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है।’ मोक्षदायिनी, पुण्य सलिला गंगा। नहीं, अभी तो उसका पुण्य पुनीत स्वच्छ रूप लौटाना है। इस बार काम शुरू हुआ है। अगली पारी दे दीजिए, पूरा करके दिखा देंगे।