सांठगांठ का ‘डॉन’

1993 में मुंबई में सिलसिलेवार धमाके हुए थे। बेहद भयानक परिदृश्य था। सैकड़ों मासूमों की हत्या कर दी गई और घायलों की संख्या भी कंपा देने वाली थी। उस दौर के केंद्रीय गृहसचिव एनएन वोहरा की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी बनाई गई। जो निष्कर्ष सामने आया, वह था-गुंडों, पुलिस और सत्ताधारी सियासत की सांठगांठ! हमारी व्यवस्था यही तिकड़ी चलाती है। लोकतंत्र का तो मुखौटा है और वह सिर्फ  चुनावों तक ही सीमित है। उस कमेटी की रपट का हश्र क्या हुआ, अब अच्छी तरह ध्यान नहीं है, लेकिन सांठगांठ और मिलीभगत का त्रिकोण आज भी यथावत है। उप्र के कानपुर शहर के एक गांव का छुटभैया विकास दुबे आज उस त्रिकोण का राष्ट्रीय प्रतीक बनकर उभरा था। कोई नई शुरुआत होने से पहले ही कानपुर के पास ‘डॉन’ को मुठभेड़ में ढेर कर दिया गया। सारे अध्याय बंद, तमाम राज दफन और फिर उसी त्रिकोण को रोते रहिए। मुठभेड़ पर सवाल उठने लाजिमी हैं, लेकिन हमारी आपराधिक न्याय व्यवस्था ही लचर है, जिसमें न्याय दशकों तक संभव नहीं है। विकास दुबे के लिए कुछ भी अपराधसूचक विशेषण इस्तेमाल करें, लेकिन वे नाकाफी हैं। विकास अपराधी, पुलिस-प्रशासन और राजनीति के साजिशी गठजोड़ का ‘डॉन’ था। उसने साजिश रचकर आठ पुलिसवालों की निर्मम हत्या कराई और की थी। ‘डॉन कानपुरवाला’ का दावा था कि एक चौबेपुर थाना ही नहीं, दूसरे थानों के करीब 200 पुलिसवाले उसके संपर्क में रहते थे। मिलीभगत, संरक्षण और मुखबिरी…! ‘डॉन’ ने यह भी कबूल किया था कि पुलिसवालों को मार कर, उनके शव जलाने की योजना भी थी, ताकि सबूतों का अस्तित्व ही खत्म हो जाता। उसके लिए कई लीटर तेल का बंदोबस्त भी किया गया था। जघन्य और बर्बर हत्याकांड के बाद उप्र पुलिस उसे 154 घंटे, यानी छह दिन से भी ज्यादा, तक ढूंढ नहीं पाई, लिहाजा पकड़ना भी असंभव था। फरारी के दौरान उसने हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान राज्य पार किए और अंततः मध्यप्रदेश के उज्जैन में महाकाल मंदिर के एक अदद गार्ड ने ‘डॉन’ को पहचान लिया था। बेशक पांच लाख रुपए की इनामी राशि का हकदार गार्ड ही है, लेकिन अंतिम निर्णय तो पुलिस और उप्र सरकार ही करेगी। फरारी के छह दिनों के अंतराल में ‘डॉन’ के पास कोई वाहन और आधुनिक हथियार नहीं था। कोई होटल भी उसे आश्रय देने को तैयार नहीं था, लेकिन वह मोबाइल से अपने संपर्कों से बात करता रहा। आश्चर्य है कि कोई भी पुलिस या खुफिया तंत्र का व्यक्ति, किसी भी नाकेबंदी पर, ‘डॉन’ को न तो पहचान पाया और न ही पकड़ने की कोई कोशिश की गई। इस दौरान ‘डॉन’ को घरों में पनाह भी मिलती रही और उसकी सेवा में वाहन भी हाजिर किए जाते रहे। यही उसका ‘नेटवर्क’ था! हैरानी है कि दिल्ली-एनसीआर की स्पेशल और अपराध संबंधी पुलिस भी अलर्ट रही, लेकिन ‘डॉन’ अपनी असली पहचान, चेहरे-मोहरे, के साथ तमाम बाधाओं को पार करता हुआ उज्जैन तक जा पहुंचा। आखिर ‘डॉन’ किसे कहते हैं? जब उप्र में 2017 में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनी थी, तो बदमाशों को जेल तक पहुंचाना या राज्य से बाहर खदेड़ना ही मुख्यमंत्री का बुनियादी मुद्दा था। बेशक कुछ कारगर प्रयास भी किए गए। करीब 115 अपराधी मुठभेड़ों में मार दिए गए और करीब 300 बदमाशों के पांव में इस तरह गोली मारी गई कि वे विकलांग हो गए। उसके बावजूद विकास दुबे जैसा दुर्दांत अपराधी 60 मुकदमों के साथ हत्या करता रहा, फिरौती वसूलता रहा, कब्जे करता रहा और लोगों को धमका कर दहशत पैदा करता रहा। इसके बावजूद वह पंचायत में जन-प्रतिनिधि चुना जाता रहा। यह सब कैसे संभव था? विकास दुबे करोड़पति अपराधी कैसे बना? दुबई में प्रॉपर्टी कैसे खरीद पाया? जन-सेवक से लेकर डॉन का चेहरा कैसे बदलता रहा? उसके गांव वाले मकान की दीवारों में हथियार और बम-बारूद फिट किसने कराए और सरकार तक भनक क्यों नहीं लग पाई? यकीनन यह सब कुछ पुलिस, प्रशासन और सत्ताधारी नेताओं के संरक्षण का ही नतीजा था। विकास ने इतने अपराध किए थे कि उसे न्यायिक अदालत में फांसी तक की सजा मिल सकती थी। वह मौत स्वाभाविक और वैध न्याय मानी जाती! संभव था कि विकास अदालतों में दोषी ही साबित न हो पाता और चुनाव जीत कर बड़ा नेता या मंत्री भी बन जाता, लेकिन अब तमाम विकल्प बंद हो चुके हैं, क्योंकि ‘डॉन’ को ही मार दिया गया है। अब सांठगांठ और संरक्षण पर भी चर्चा और चिंतन समाप्त हो जाएगा। तब तक एक और डॉन की इंतजार करें।