संन्यासी का जीवन

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

जम्मू में महाराज से उनकी लंबी बातचीत हुई। महाराज के कहने पर उन्होंने कुछ दिन वहां रहना स्वीकार कर लिया। 29 अक्तूबर को फिर वहां से रवाना हो स्यालकोट पहुंचे। वहां उनके दो भाषण हुए। उत्तर भारत में  उनके ज्यादातर व्याख्यान हिंदी में ही हुए थे। स्यालकोट में स्त्री शिक्षा की समुचित व्यवस्था न देखकर स्वामी जी  के भक्त मूलचंद्र एम.एम.एल.बी ने एतदर्थ एक कमेटी बनाई और खुद उसके मंत्री बने। वहां से 5 नवंबर को स्वामी जी लाहौर आ गए। वहां भी लोगों ने उनका खूब आदर-सम्मान किया। अंग्रेजी दैनिक ट्रिब्यून के संपादक श्री नरेंद्र नाथ गुप्ता उन्हें जिद करके अपने घर ले गए। लाहौर में स्वामी जी ने अलग-अलग विषयों पर तीन भाषण दिए। पंजाब खास तौर से लाहौर में आकर स्वामी जी महर्षि दयानंद के द्वारा प्रवर्तित आर्य समाज के काम से विशेष रूप से परिचित हुए। यहां आर्य समाज के नेताओं की दृष्टि भी उनकी ओर आकृष्ट हुई थी। आपस में खूब विचार विमर्श हुआ। स्वामी जी के मंतव्य और आर्य समाज में कुछ भिन्नता थी, फिर भी आर्य सदस्यों के चरित्र, त्याग और लोकसेवा के व्रत के स्वामी जी प्रशंसक थे। हां, उनके कट्टरपन का वे स्पष्ट रूप से प्रतिवाद करते थे। लाहौर में स्वामी जी का परिचय गणित के अध्यापक तीर्थराम गोस्वामी से हुआ। श्री तीर्थराम जी ने एक दिन शिष्यों समेत स्वामी जी को भोजन पर बुलाया। तभी वहां वेदांत चर्चा का भी सुयोग उपस्थित हुआ। स्वामी जी ने देख लिया, ये प्राध्यापक वेदांत के प्रचार में महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं। स्वामी जी की प्रेरणा से श्री तीर्थराम जी का भाव परिर्वतन हो गया और वे वेदांत के लिए अपना जीवन अर्पण करने को तैयार हो गए। चलते समय श्री तीर्थराम जी ने स्वामी जी को अपनी बहूमूल्य सोने की घड़ी भेंट की। स्वामी जी ने उसे स्वीकार कर उनकी जेब में रखते हुए वेदांत की भाषा में कहा, मित्र इस घड़ी का उपयोग मैं इसे जेब में रखकर करूंगा। इसके कुछ दिनों बाद श्री तीर्थराम जी ने प्राध्यापक के पद से त्याग पत्र दे दिया और संन्यासी का जीवन स्वीकार कर लिया। यही प्रोफेसर महोदय आगे चलकर स्वामी रामतीर्थ के नाम से विख्यात हुए। वे अनेक देशों में घूमे और वेदांत का प्रचार किया। ये सौम्य संत कुछ सालों बाद ही देह बंधन से मुक्त हो गए। स्वामी जी की प्रेरणा से आर्य समाज के कर्मठ संन्यासी स्वामी अच्यातुनंद, प्रकाशनंद और कुछ अन्य धर्म प्रचारक संन्यासी उत्साह पूर्वक वेदांत प्रचार के कार्य में तत्परता से जुट गए। स्वामी जी फिर बीमार हो गए। इसलिए आराम करने के लिए देहरादून चले गए। लेकिन वहां भी उन्हें आराम करने का मौका नहीं मिल सका। वे रोजाना शिष्यों को वेदांत और सांख्यदर्शन पढ़ाते। आने-जाने वालों का तांता लगा रहता।