सपनों का बॉयस्कोप

सुरेश सेठ

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प्रिय बंधु, इस देश में हंसना फूहड़पन की निशानी है, चिल्लाना राजनीतिक हो जाने की और आंसू टपकाते हुए आत्महत्या के लिए उद्यत हो जाना किसी गहरे षड्यंत्र की। कभी आंसू टपकाने को ऐसी गैर-मर्दानी हरकत समझा जाने लगा था कि श्रीमान चार्ली चैप्लिन को भी कहना पड़ा कि ‘बंधुओ, मुझे बरखा रुत बहुत पसंद है। जब बारिश होती है तो मैं इसमें दूर तक निकल जाना चाहता हूं क्योंकि बारिश के छींटे जब मेरे चेहरे पर पड़ते हैं तो मेरे आंसू भी उनमें मिल कर धुल पुंछ जाते हैं, कोई उन्हें देख नहीं पाता और लोग उदाहरण देते हैं कि लो देख लो, चार्ली कभी रोया नहीं।’ हमें लगता है कि इस देश में आम आदमी को न खुलकर हंसने की इज़ाजत है और न रोने की। खुल कर हंसें तो कहते हैं लो दीवाना हो गया। भला ऐसी बातें क्या हंसने की हैं कि लगभग पचहत्तर वर्ष की उम्र के इस देश के लोकतंत्र में हम देश की गरीबी, भूख, बेकारी और बेचारगी को एक बलिश्त भी कम नहीं कर पाए। भूखे पेट पर तबला बजाने वाले लोगों को हमने देश की प्राचीन परंपराओं या ललित कलाओं को समर्पित व्यक्तित्व कह दिया और जो अपनी गरीबी से संत्रस्त हो मौत को गले लगा रहे थे, उन्हें हमनें अपच के शिकार से लेकर घोर नैराश्ववादी तक करार दे नकार दिया। जनाब यह तो चिंतन मनन की बातें हैं। भला ऐसी बातों को नकार कर हंसना क्या, क्योंकि इस देश में या तो दीवाना हंसे या खुदा जिसे तौफीक दे, वरना यहां यूं ही हंस देने वाले तो बेवजह लोग कहलाते हैं। नहीं मानते, तो दुनिया का खुशमिज़ाजी का सूचकांक देख लो, जिसमें भारत का दर्जा कहीं नीचे है। हर नई गिनती पर और भी नीचे होता जा रहा है। ‘अजी हंसे नहीं, तो क्या रो दें।’ वैसे तो इस देश के लोगों को रुदन राग बहुत प्रिय है। इनकी कतारें रोज़गार दफ्तरों से लेकर सस्ते अनाज की दुकानों के बाहर खड़ी वर्षों से रो रही हैं। वर्षों से रोने के कारण उनका रोना पहले सिसकियों में बदला, फिर कहीं बहुत गहरे से निकलती अंतस की आह में और अब तो यह एक ऐसा मौन रुदन बन गया है कि जिसकी कोई आवाज़ नहीं है। इसे गालों पर बहते हुए आंसुओं को छिपाने के लिए अपने चेहरे पर पड़ती हुई, धारासार बारिश की बूंदों की भी ज़रूरत नहीं। बस एक अधूरा शेर पूरा हो गया, ‘कि यहां या तो दीवाना हंसे या खुदा जिसे तौफीक दें, वरन इस जि़ंदगी में मुस्कराता कौन है?’ लीजिए बात रोने की हो रही थी और हम नामुक्कमल हंसने पर शेर पढ़ने लगे। जी हां, यहां इस बस्ती का यही रिवाज़ है। जाते थे जापान, पहुंच गए चीन, समझ गए न। यहां आदमी अपने हालात देख कर न रो पाता है और न हंस। बस यूं ही लगता है हम किसी शोभायात्रा में चल रहे हैं और जिंदाबाद के नारे में तबदील हो गए हैं। इस देश की तबदीलियां अजब-गज़ब हैं भाई जान। लोग देश की तरक्की की बात करते हैं और गरीब और गरीब हो जाते हैं, और अमीर और भी अमीर। बीच का मध्यमवर्ग है जो न जीता है और न मरता है, लगता है जैसे वह किसी यातनागृह में जीने को अभिशप्त हो गया। बहुत दिन पहले वह रोज़ सुबह उठ कर अपने जि़ंदगी के बदल जाने का या अपनी सदियों पुरानी धरती के आसमान हो जाने का सपना देखता था। वर्षों बीत गए, ये सपने भी अपने वजूद से शर्मिंदा हो गए। उन्होंने अपने आप रात को लोगों की नींद में आना बंद कर दिया।