अनुच्छेद 370 की पहली बरसी

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 समाप्त करने के बाद एक साल बीत गया। बीती पांच अगस्त को ही पहली बरसी थी। इस दौरान बदलाव भी हुए हैं, लेकिन कुछ महत्त्वपूर्ण विरोधाभास भी सामने आए हैं। कश्मीर का चेहरा बदला है, लेकिन शिक्षा, रोजी-रोटी और स्थायित्व के सवाल अब भी हैं। बेशक आतंकवाद का खौफ  और अलगाववाद की पाकपरस्त सियासत के प्रति सहानुभूति और समर्थन के भाव लगभग खत्म हो रहे हैं। अब आतंकियों के खिलाफ  सेना और सुरक्षा-बलों के ऑपरेशन और मुठभेड़ का व्यापक विरोध नहीं होता। अब आतंकियों को बुरहान वानी की तरह कश्मीरियों के नायक स्वीकार नहीं किया जाता, लेकिन कश्मीर की करीब 80 लाख आबादी के लिए संचार और संवाद का मुद्दा बेहद संवेदनशील है। कश्मीर घाटी में इंटरनेट कमोबेश अब भी बंद हैं अथवा अक्सर बंद कर दिए जाते हैं।

प्रशासन अब भी इंटरनेट को आतंकवाद का स्रोत मानता है, जबकि प्रधानमंत्री मोदी कश्मीर के लिए आह्वान करते रहे हैं कि मोबाइल में ही इंटरनेट होना चाहिए और पूरी दुनिया कश्मीरियों के सामने जीवंत होनी चाहिए। इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी दखल दिया था और 10 जनवरी, 2020 को फैसला सुनाया कि इंटरनेट को लेकर जनता को बताया जाए। इंटरनेट के जरिए अभिव्यक्ति की आजादी और व्यापार की सुगमता कश्मीरियों के मौलिक अधिकार हैं। नतीजा यह हुआ कि 2-जी व्यवस्था का इंटरनेट खोला गया, लेकिन एक बरसी बीत जाने के बावजूद 4-जी शुरू नहीं की गई। अब तो 5-जी का दौर आ गया है। अनुच्छेद 370 खत्म होने का सबसे अधिक लाभ, विभाजन के वक्त, पश्चिमी पंजाब से कश्मीर में आने वालों को हुआ। उन्हें नई नीति के तहत नागरिकता दी गई है। अब वे चुनाव भी लड़ सकेंगे, धंधा-पानी भी कर सकेंगे  और उन्हें संविधान के बुनियादी अधिकार भी हासिल होंगे। चुनाव का संदर्भ आया है, तो कश्मीर में पंचायती राज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन किए गए हैं। अब बड़े और कद्दावर नेता भी ग्रामीण आबादी को प्राथमिकता के तौर पर देखने लगे हैं।

पढ़ी-लिखी नौजवान जमात भी पंच और सरपंच बनकर देश की व्यवस्था के हिस्सेदार बन रहे हैं, लेकिन एक साल के दौर में पहले तो माहौल और परिवेश उग्र और हिंसक रहा। घाटी पूरी तरह छावनी में तबदील हो गई थी। सेना, सुरक्षा बलों के जवानों और बैरिकेड्स ही दिखाई देते थे। गलियां और बाजार वीरान, सुनसान पड़े होते थे। इस बार भी पांच अगस्त से पहले कर्फ्यू चस्पां किया गया था, लेकिन हालात की समीक्षा के बाद उसे हटा दिया गया। बहरहाल बीते साल माहौल शांत  होने लगा, तो कोरोना वायरस ने हमला बोल दिया और मार्च में लॉकडाउन लागू कर दिया गया। नतीजतन कश्मीर के धंधे और कारोबार चौपट हैं। प्रख्यात डल झील के हाउस बोट के लिए सैलानी नहीं हैं। कश्मीर के खूबसूरत कालीन और गरम शॉल बिक नहीं पा रहे हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष ग्राहक नहीं है। इंटरनेट की गति इतनी धीमी है कि कारोबार संभव नहीं है। जम्मू-कश्मीर चैंबर ऑफ  कॉमर्स का आकलन है कि इस एक बरसी में ही करीब 40,000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है और करीब पांच लाख लोगों का रोजगार छिना है। प्रधानमंत्री मोदी ने कश्मीर के लिए 80,000 करोड़ रुपए का जो पैकेज घोषित किया था, उसके 63 प्रोजेक्टों में से सिर्फ  17 ही पूरे हुए हैं। पैकेज का आधा ही खर्च हुआ है।

इस मौके पर सरकार का दावा है कि करीब 13,600 करोड़ के 168 एमओयू पर हस्ताक्षर किए जा चुके हैं। पंचायतों के जरिए बड़े पैमाने पर काम कराए जा रहे हैं। यह भी दावा है कि 50 नए डिग्री कॉलेज और सात  नए मेडिकल कॉलेज जम्मू-कश्मीर में शुरू कराए गए हैं। मेट्रो और राजमार्गों के काम जारी हैं। अभी सरकार को लंबा रास्ता तय करना है और फासलों को भरना है। अनुच्छेद 370  के बाद जिस बदले कश्मीर की कल्पना पेश की गई थी और देश की मुख्यधारा से जुड़ने के दावे किए गए थे, फिलहाल वे सपने और दावे ही हैं। तनाव अब भी है, लेकिन वह भीतर ही भीतर उबल रहा है। भ्रष्टाचार अब भी बरकरार है। होना यह चाहिए था कि खुद कश्मीरी और बाहर के लोग ही बोलें कि यह वाकई नया कश्मीर है, जहां एक ही विधान और एक ही निशान है।