क्यों जला बेंगलुरू!

अचानक आधी रात में ऐसी सांप्रदायिक भीड़ कहां से आती है और  हिंसा के नारे लगाने लगती है-मारो! मारो!! अचानक इतने लाठी-डंडे, पत्थर और ईंटें कहां से आ जाती हैं? अचानक पुलिस थाने और विधायक के घर में तोड़-फोड़, आगजनी और लूटपाट करने कौन आ जाता है? अचानक उत्तेजना और आक्रोश इतने भड़काए जाते हैं कि करीब 300 सरकारी और निजी वाहन फूंक दिए जाते हैं! करीब 70 पुलिसवाले, जिनमें कमिश्नर स्तर के अधिकारी भी हैं, घायल कर दिए जाते हैं! क्या ऐसी हिंसा फैलाना किसी समुदाय-विशेष का संवैधानिक अधिकार है? यदि ऐसा नहीं है, तो ऐसी हिंसा बेंगलुरू से पहले दिल्ली, लखनऊ, उप्र के अन्य शहर और मुंबई आदि में क्यों फूटती रही है? क्या फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर एक गलत और आपत्तिजनक पोस्ट के कारण ही शहर और समाज को सुलगाया और जलाया जा सकता है? वह पोस्ट सांप्रदायिक और मुसलमानों की भावनाओं को आहत करने वाली हो सकती है, लेकिन क्या यही आपकी सहिष्णुता है कि एक शहर जलाने की कोशिश की जाए? क्या कानून-व्यवस्था आपकी बपौती बन गई है? गालियां तो हिंदू देवी-देवों और अन्य धर्म-गुरुओं को भी दी जाती रही हैं, उन्हें विभिन्न तरह अश्लीलता से अपमानित भी किया गया है, लेकिन क्या उसकी एवज में दंगे भड़का दिए जाएं?

फिर तो देश में गुंडागर्दी और दंगाइयों का शासन होना चाहिए? इस किस्म की सांप्रदायिकता और हिंसा देश को किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं होनी चाहिए। यह तय करना सरकारों का बुनियादी दायित्व है। बीती 11 अगस्त की रात से 12 अगस्त की भोर तक बेंगलुरू में हिंसा का नंगा नाच हुआ है। सबसे गंभीर और डरावना सवाल तो यही है कि अचानक एक उग्र भीड़ कहां से आती है और लाठी-डंडों तथा पत्थरों से हमले बोलने लगती है? हमें तो हर बार यह सुनियोजित लगा है। क्या यह भीड़ प्रशिक्षित है और मानसिक तौर पर भारत-हिंदू-विरोधी है? यह हिंसा भगवान कृष्ण से जुड़े पर्व ‘जन्माष्टमी’ की पूर्व संध्या पर ही क्यों भड़काई गई? सोशल मीडिया पोस्ट, हिंसा, विचारधारा से प्रभु श्रीराम के भव्य मंदिर का क्या सरोकार था, क्योंकि उनके खिलाफ  भी जहर उगला गया?  हैरान करने वाला यथार्थ है कि टीवी चैनलों पर कुछ कट्टरपंथी किस्म के मुल्लाओं और मुस्लिम नेताओं ने सरेआम धमकियां दीं-यदि आग से खेलोगे, तो जलकर भस्म भी हो जाओगे! आग से खेलना बंद करो! इसी तरह एक राजनीतिक संगठन-सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ  इंडिया (एसडीपीआई) ने किसी भी आपत्तिजनक कथन को बर्दाश्त नहीं करने और भविष्य में भी ऐसे ही अंजाम भुगतने की खुलेआम धमकी दी है। यह लोकतंत्र है या पाषाणकालीन कबीलाई समाज का कोई नमूना…! बहरहाल कर्नाटक पुलिस ने इस संगठन के नेता पाशा समेत 145 गिरफ्तारियां की हैं।

 सरकार ने न्यायिक जांच के आदेश भी दिए हैं। सवाल है कि क्या ऐसी कार्रवाई की जाएगी, जिससे देश में संविधान और कानून की व्यवस्था सुनिश्चित की जा सके? दंगाइयों की पहचान निश्चित है, कारगुजारियां साफ  हैं, मंसूबे नापाक और देश-विरोधी हैं, तो संविधान से चलने वाले देश में ऐसे दंगाई और हिंसक तत्त्वों की गुंजाइश कहां है? एसडीपीआई का संबंध पीएफआई से है, जो खुद में विवादास्पद संगठन है। आतंकियों से उसके गठजोड़ बताए जाते हैं। बेशक ऐसे संगठनों पर पाबंदी लगे और आतंकवाद वाले कानून के तहत केस दर्ज किया जाए। कमोबेश यह पूरा प्रकरण धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा के दायरे में नहीं आता। यह वैचारिक जमात भी देश-हितैषी नहीं है। बेंगलुरू हमारे देश का प्रख्यात आईटी हब है। पढ़े-लिखों, वैज्ञानिकों और शांत स्वभाव के लोगों का शहर है। वहां ऐसे बलवाई कहां से आ गए और एक खूबसूरत शहर के चेहरे पर कालिख पोतने लगे? सवाल यह भी है कि आज अवार्ड वापसी वाले, असहिष्णुता चिल्लाने वाले, धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार, मोमबत्ती जलाने और चिट्ठी लिखने वाले गिरोहबाज कहां हैं और खामोश क्यों हैं? ‘मीम’ और ‘भीम’ वाले भी कहां दुबके बैठे हैं? कांग्रेस का तो चुना हुआ विधायक बाल-बाल बचा है, फिर भी चुप्पी…हैरानी होती है! बहरहाल अब माहौल शांत हो चुका है। यह दोबारा नहीं होगा, ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को अधिकार दिया है कि जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई दंगाइयों और साजिशकारों के निजी खातों से की जाए। सिर्फ  बयानबाजी नहीं, अब कार्रवाई की दरकार है।