निचले चुनाव की ऊपरी सतह

स्थानीय निकाय चुनावों की बुनियाद पर सियासी समुदाय को एकत्रित करने की कोशिश फिर से शुरू हो रही है और यह एक अवसर की तरह हिमाचल के सत्तारूढ़ दलों का हमेशा प्रिय आयोजन रहा है। दरअसल हिमाचल की राजनीतिक प्रवृत्ति का विकास अगर स्थानीय निकाय चुनावों से जुड़ता है, तो बड़े नेताओं की चूलें हिलाने का सबब भी यहीं बनता है। हिमाचल की दृष्टि से अब तक राजनीति के सारे केंद्र पंचायती राज संस्थाओं के इर्द-गिर्द बुने जाते रहे हैं और इसी परिप्रेक्ष्य में घोषणाएं और योजनाएं पनपती रहीं। पंचायत घर से जिला परिषद तक के सफर में, ब्लॉक स्तरीय पड़ाव की अहमियत में राजनीतिक संगठन व सत्ता के संदर्भ निरंतर सुदृढ़ हुए हैं, फिर भी इन संस्थाओं के चुनाव पार्टी चिन्ह पर नहीं होते।

हिमाचल ऐसा पहला राज्य है जहां धूमल सरकार के दौर में ही स्थानीय निकाय चुनावों में, महिलाओं के लिए पचास फीसदी आरक्षण तय किया गया। केंद्र से मिले वित्तीय अधिकारों के बलबूते अब पंचायती राज संस्थाएं महज चुनावी प्रक्रिया नहीं, बल्कि सामाजिक गणित में लाभार्थियों का चयन भी है। इसी ताने बाने में सम्मिलित होता वर्ग अब निजी लाभ के बदले वोट बैंक की राजनीति को शक्तिशाली बना रहा है। यानी एक हाथ से ले और दूसरे से दे जैसी युक्ति को प्रमाणित करने निचले स्तर के चुनाव समाज का बंटवारा करते हुए भी यह रेखांकित कर जाते हैं कि नागरिकों के भीतर सियासत के पैबंद किस तरह बढ़ रहे हैं।

बहरहाल कोरोना काल में पंचायत चुनावों का बिगुल बजा कर यह तो कहा जा रहा है कि लोकतांत्रिक गांव की फिर परीक्षा होगी, लेकिन इंतजामों की संपूर्णता में संशय बरकरार है। चुनाव प्रक्रिया की सूई वहीं अटक गई, जहां परिणामों से पूर्व वादों और दावों को पूरा किया जा सके। यानी पंचायती राज के भीतर ऐसे संकल्प लिए जाएं, जो जनता के मूड की रखवाली कर सकें। नई पंचायतों के गठन की तादाद में जो-जो अठखेलियां हो सकती हैं या नगर निकायों के गठन से विस्तार तक नया नागरिक संवाद पैदा करने का वक्त फिर आ रहा है। ऐसा समझा जाता है कि मौजूदा 3226 पंचायतों की शुमारी में दो से अढ़ाई सौ नई जोड़ी जाएं जबकि कुछ नए नगर निकाय भी खड़े किए जाएं। शहरी विकास की दृष्टि से नगर परिषदों से नगर निगमों तक की घोषणा होती रही है, लेकिन हकीकत में सामने कुछ नहीं आया। ऐसे में देखना यह होगा कि स्थानीय निकाय चुनावों तक सरकार की फेहरिस्त में नया क्या जुड़ता है।

सोलन व मंडी के साथ-साथ पालमपुर में नगर निगम बनाए जाने के कयास धरती पर कैसे स्थापित होते हैं या विभागीय तौर पर शहरी विकास मंत्रालय अब नई परिपाटी जोड़ने में कैसे सक्षम होता है, यह देखना होगा। जाहिर तौर पर यह ग्रामीण और शहरी विकास के महकमे संभाले दो मंत्रियों के कौशल व निर्णायक होने का सबूत भी होगा कि चुनावी करवटों से पूर्व बिसात कैसे बिठाई जाती है। स्थानीय निकाय चुनावों में पंचायती राज के सामने शहरीकरण की नई व्याख्या कैसे की जाती है, इसका भी पटाक्षेप होगा। हालांकि हिमाचल खुद के भीतर ग्रामीण होने का अर्थ बचाते-बचाते ऐसी स्थिति में रहा है, जहां शहरीकरण की न सही पैमाइश हुई और न ही नीतियों से प्रबंधन तक कुछ हुआ।

अब समय आ गया है कि हिमाचल ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों को समझने से पहले आम आदमी की क्षमता में उठते विकास के ग्रॉफ को नई तहजीब से जोड़े। यानी टीसीपी कानून की परिधि में पूरे प्रदेश को व्यवस्थित नहीं किया, तो न गांव बचेंगे और न ही शहर। नगरों के बीच फंसे आधुनिक गांवों को शहरी आवरण से ढांपने की जरूरत में लाजिमी तौर पर कम से कम आधा दर्जन शहरी विकास प्राधिकरण बनाने होंगे। प्रदेश  को सर्वप्रथम यह बताना होगा कि हिमाचल में शहरीकरण की दर अब कितनी है और इसी दर के हिसाब से आने वाले वर्षों में प्रदेश की कम से कम आधी आबादी को शहरी रुतबे में गिनने की जरूरत होगी। इसके लिए नगर परिषदों या निगमों के गठन के साथ-साथ यह तैयारी भी करनी होगी कि ये निकाय अपने वित्तीय संसाधन कैसे जुटाएंगे और नागरिक समाज को किस तरह शुल्क अदायगी से जोड़ा जाएगा।