परमार से सुधीर शर्मा तक

हिमाचल निर्माता एवं पूर्व मुख्यमंत्री स्व.वाईएस परमार की जयंती दरअसल पर्वतीय अस्मिता व आर्थिकी के सफर को, हर साल से जोड़ती है। इस बहाने राज्य की उन्नति व मुख्यमंत्रियों के विजन में झांकने का अवसर मिलता है, लेकिन इस बार हम उन्हें याद करते हुए कांग्रेस के वर्तमान में नेताओं के कद देख सकते हैं।  उनकी मृत्यु यानी 1981 के बाद हिमाचल की सियासी हिस्ट्री कितनी भी बदले, लेकिन आज भी उस काल को नमन करते हुए ही प्रदेश अपना राजनीतिक इतिहास लिख पाता है। राजनीतिक घटनाक्रम की तीव्रता में हिमाचल की मानसिकता व नागरिक प्रवृत्तियों में परिवर्तन की वजह से आज के नेता, केवल सत्ता के दम पर ही नजर आते हैं, जबकि स्व.परमार ने राज्य को राजनीतिक तौर पर सक्षम बनाया। हिमाचल को रियासतों से निकला हुआ प्रदेश कहें, लेकिन समग्र हिमाचल की दृष्टि में पंजाब पुनर्गठन का पड़ाव खासी अहमियत रखता है। आज के हिमाचल में पंजाब के पर्वतीय क्षेत्र न मिले होते या पंजाबी सूबे में हिमाचल छिटक गया होता,तो नेताओं की वर्तमान पीढ़ी इस स्थिति में न होती कि कुछ हासिल कर पाते। इसलिए ‘परमार से सुधीर शर्मा तक’ विषय चुनते हुए,हमारी तलाश प्रदेश के लिए नए सोच व विजन को मुकम्मल होते देखने की रहेगी। दो दिन पहले पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा ने ‘अपना गांव, अपना काम’ लांच करके फिर से हिमाचल की समग्रता में राज्य की अस्मिता का स्पर्श किया है। हिमाचल राज्य के प्रति राजनीतिक व नागरिक फर्ज भी यही है कि हम इस पर्वतीय प्रदेश की आत्मा को समझते हुए निर्णायक बनें। स्व. वाईएस परमार कभी पर्वतीय अस्मिता के खुद संस्थान बने, तो पर्वतीय आर्थिकी के पुरोधा के रूप में सुधीर शर्मा के ‘अपना गांव-अपना काम ’ की लांचिंग को इसके सार्थक उद्देश्य तथा परिप्रेक्ष्य में लेना होगा। कोरोना काल के मध्य छाई दिशाहीनता और असमंजस के भंवर तोड़ते हुए सुधीर शर्मा ने न केवल एक संकल्प, बल्कि ताकतवर विकल्प दिया है। यह सरकारी नौकरी के लिए भटकते समुदाय, कोरोना काल में नौकरी  गंवा चुके युवाओं या बाहरी राज्यों से लौट आए क्षमतावान हिमाचलियों से एक आह्वान है कि वे राज्य के संसाधनों में अपना भविष्य तराशें। सुधीर शर्मा कोई ऐसा नया काम नहीं कर रहे, जिन्हें सरकारी एजेंसियां वर्षों से करने की कोशिश न कर रही हों। यह नौणी व पालमपुर के बागबानी व कृषि विश्वविद्यालयों के सामने कुछ नया कर दिखाने का तंबू है, जिन्हें अभी कई हवाओं का सामना करना है। ‘अपना गांव-अपना काम’ मात्र नारा भी नहीं है, क्योंकि विशेषज्ञों को एक दक्ष टीम ने लांचिंग से पहले कुछ सफल उदाहरण व विकल्प तैयार किए हैं और इस बहाने हम गैर सरकारी क्षेत्र के जरिए प्रदेश को आत्मनिर्भर बनते देखते हैं। यहां हिमाचल याचक नहीं और न ही युवा सियासी नेताओं की खुशामद में अपना भविष्य देख रहा है, बल्कि इसके माध्यम से एक सामाजिक-आर्थिक आंदोलन की रूपरेखा बन रही है।

वर्षों पहले स्व. परमार ने भी वन,पर्यावरण,पहाड़ी संस्कृति व पर्वतीय आर्थिकी को जोड़ते हुए जिस प्रदेश की कल्पना की थी, उसकी चुनौती आज भी हाजिर है। आज भी हिमाचल को भले ही सेब राज्य कह दें, लेकिन फल राज्य बनने की कल्पना साकार न हो सकी। पर्यटन विस्तार के बावजूद पर्यटन राज्य बनने की दरकार बाकी है। बेशक इस बीच ऊर्जा राज्य की  दिशा में शांता कुमार द्वारा मुफ्त बिजली के रूप में रायल्टी हासिल करना एक क्रांतिकारी कदम माना गया या पोलिथीन मुक्त राज्य बनाकर प्रेम कुमार धूमल ने राष्ट्र को रास्ता दिखाया,लेकिन कमोबेश हर सरकार ने नौकरी का झांसा देकर युवा क्षमता को दिशाहीन बना दिया। वीरभद्र सिंह ने स्कूल-कालेज खोलकर मात्रात्मक शिक्षा को नई उड़ान दी, लेकिन युवाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए अब तक के प्रयास असफल हैं। आश्चर्य यह है कि हिमाचल में युवाओं को सरकारी नौकरी की फांस में बहलाने-फुसलाने के लिए पैंतालीस साल आय तक छूट देकर घोर अपराध हुआ है। आशाओं और अभिलाषाओं के बीच हिमाचली युवा अगर प्रदेश से बाहर निकल कर सफल हो रहा है,तो राज्य के भीतर स्वरोजगार का अलख जगाना ही पड़ेगा। प्रसन्नता का विषय यह कि सुधीर शर्मा जैसे नेताओं ने भी जमीनी हकीकत को अंगीकार करते हुए वही विकल्प चुने हैं, जिन्हें अपना कर युवा अपना भविष्य संवार सकते हैं। हम डा.वाईएस परमार से सुधीर शर्मा तक राजनीति के द्वंद्व, संघर्ष और विराम चुन सकते हैं, लेकिन अब समय आ गया है कि नेताओं के विजन पर खुल कर चर्चा हो। बेशक हिमाचल के मुख्यमंत्री तो राज्य स्तरीय सोच का चेहरा बने,लेकिन अमूमन हर मंत्री अब विधानसभा तक ही सिमट गए। ‘अपना गांव-अपना काम’ की प्रासंगिकता व मौलिकता में सुधीर शर्मा अगर हिमाचल की समग्रता को संदेश दे पाते हैं, तो यह प्रयास उनकी क्षमता का परिचायक बनेगा।