गीता रहस्य

स्वामी  रामस्वरूप

हे अर्जुन मेरी आज्ञा यह है कि वेदानुकूल तुझे क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए पृथ्वी पर धर्म स्थापित करने के लिए मोह ममता आदि का त्याग करके मेरे द्वारा दिए ब्रह्म ज्ञान में स्थित होकर कौरवों जैसे दुष्टों को तथा कौरवों का साथ देने वाले प्रत्येक योद्धाओं को युद्ध में मार गिरा। मेरी आज्ञानुसार इसी क्षत्रिय धर्म का पालन करने मात्र से तू यदि युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ तो मोक्ष प्राप्त करेगा और यदि युद्ध में विजय प्राप्त करेगा तब पृथ्वी पर रहकर राज्य  का सुख भोगेगा…

गतांक से आगे…

ऋग्वेद मंत्र 10/164/20 में स्पष्ट कहा है कि मानव शरीर जो कि नाश्वान है, उसमें अविनाशी, चेतन परमात्मा एवं जीवात्मा जो कि नाशवान है दोनों निवास करते हैं। इस संसार की रचना, पालना एवं संहार के विषय में ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 129 में विशेष वर्णन किया गया है। अंत में भाव यह है कि श्रीकृष्ण महाराज जी अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि मुझ जैसे योगेश्वर की शरण में आकर और मेरी आज्ञा में रहकर सभी पापी अथवा पुण्यवान प्राणी परमगति को प्राप्त होते हैं। अतः यदि तू भी मेरी शरण में मेरे अधीन और मेरी आज्ञा पालन में रहेगा निश्चित ही तू परमगति को प्राप्त होगा।

हे अर्जुन मेरी आज्ञा यह है कि वेदानुकूल तुझे क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए पृथ्वी पर धर्म स्थापित करने के लिए मोह ममता आदि का त्याग करके मेरे द्वारा दिए ब्रह्म ज्ञान में स्थित होकर कौरवों जैसे दुष्टों को तथा कौरवों का साथ देने वाले प्रत्येक योद्धाओं को युद्ध में मार गिरा। मेरी आज्ञानुसार इसी क्षत्रिय धर्म का पालन करने मात्र से तू यदि युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ तो मोक्ष प्राप्त करेगा और यदि युद्ध में विजय प्राप्त करेगा तब पृथ्वी पर रहकर राज्य  का सुख भोगेगा। श्लोक 9/34 में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं कि हे अर्जुन तू मेरे में स्थिर मन रखने वाला हो, मेरा भक्त हो, मेरा यज्ञ करने वाला हो, मुझे नमस्कार करने वाला हो और इस प्रकार मेरी शरण में हुआ आत्मा को मुझ से जोड़कर मुझमें समाहित करके मुझ को ही प्राप्त हो जाएगा।

भाव- यह श्लोक भी योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज ने परमामा में लीन होकर और परमात्मा के आनंद में मग्न होकर स्वयं को परमेश्वर में स्थित करके परमेश्वर की स्थिति में कह रहे हैं। भाव यह है मानो श्लोक 9/34 को परमेश्वर कह रहे हैं और वस्तुतः कह श्रीकृष्ण महाराज ही रहे हैं। अतः भाव यह है कि वह निराकार, सर्वव्यापक ब्रह्म जो जन्म-मृत्यु से सदा परे है, मानो वह श्रीकृष्ण्ण महाराज के शरीर के अंदर से कह रहा है कि हे अर्जुन तू मुझ में स्थिर करने वाला बन, मेरा भक्त, मेरा यज्ञ और मुझे नमस्कार करने वाला बन इत्यादि और यह सत्य है कि उस समय योगेश्वर श्री कृष्ण और अन्य योगियों की शरण में जाने वाला और आज भी उस अनादि परंपरा के अनुसार वेद एवं योग के ज्ञाता किसी योगेश्वर की शरण में आकर वेद, योग विद्या आदि उपासना सीखकर साधक परमेश्वर की शरण में हुआ स्वयं को परमेश्वर में समाहित करके परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।