लंबे समय से हिंदी और पहाड़ी में गजल लिख रहे पवनेंद्र पवन का हिंदी गजल संग्रह ‘उसे दुख धरा का सुनाना पहाड़ो’ प्रकाशित हुआ। संग्रह की गजलें मानव मात्र के दुख-संघर्ष का रचनात्मक दस्तावेज है। शिल्प और कथ्य दोनों धरातलों पर मजबूत पांव गड़ाए उनकी रचना प्रक्रिया में सुबह के उगने और सांझ के ढलने की सी सहज व स्वाभाविक लय-ताल है। उनकी रचनाएं उस प्रायोजित धुंध पर चोट करती हैं, जिसे बींध कर धूप को आम आदमी के घर-आंगन तक पहुंचना है। उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट है जिसे वह बुलंद आवाज में साफगोई से प्रकट करते हैं:
किसान मरने को खंजर ढूंढता है
तू मस्जिद और मंदिर ढूंढता है।
धर्म और संप्रदाय के नाम पर उग्र होती मानसिकता को लेकर पवनेंद्र चिंता व्यक्त करते हैं ः
बंद कमरों से हवाओं में निकल कर देखो
हिंदू मुस्लिम के ही सांचों में न ढल कर देखो।
यह शेर हमारी मूल सांस्कृतिक चेतना का बोध करवाता है। संस्कृति का संचालक मूल्य उदारता है, जो व्यक्ति को करुण व सहिष्णु बनाते हुए वैयक्तिक स्वातंत्र्य का आधार बनता है। पर आज के समय में स्वतंत्र दृष्टिकोण पर अति आग्रही निजतावादी नजरिया हावी है। लेकिन आत्मकेंद्रित होते जाने में कितना बड़ा खतरा है, इस शेर में देखिए ः
पास वाला जो था जंगल धू-धू जलता रहा
और दरिया बेखबर अपनी डगर बहता रहा।
अलगाव और उदासीनताजन्य एक निसंग ठंडापन, जो हमारे आत्मीय रिश्तों के घरौंदों में भी सेंध लगाने लगा है, वह नगर और महानगरीय तथाकथित आधुनिक बोध में गांवों की अपेक्षा कहीं ज्यादा है ः
यही आभास होता है नगर से आके गांव में
तपती धूप से जैसे चला आया हूं छांव में।
यही नहीं, गांव उनके लिए हर व्याधि की रामबाण औषधि है। उधर, दादी, मां, बेटी यानी विविध स्त्री चरित्र उनकी गजलों में कहीं चिंता संकेंद्रित विमर्श का सूत्रपात करते हैं तो कहीं स्फुलिंग से कौंध कर अंतर को उजासमय कर जाते हैं। इसी तरह प्रकृति के विध्वंसक विस्फोट पर बैठी सभ्यता के लिए संवेदना की बानगी देखिए ः
झरनों वनों पहाड़ों के मंजर लपेट कर
लाया हूं अपनी आंख के अंदर लपेट कर।
हर विकार और हर पाखंड को लक्ष्य बनाती उनकी गजलों में सत्ता और आम आदमी के बीच का सच सामने आया है ः
सितारे एक जुमला है चुनावी
तू सचमुच चांद पे घर ढूंढता है।
आदमी का होना किसी भी मूल्य या सिद्धांत से पहले है ः
जैसी भी हो मांगती रोटी
भूख का कोई फलसफा नहीं है।
यहां पवनेंद्र विशुद्ध अद्वैतवादी कवि सूरदास की मनोभूमि पर आ ठहरते हैं। विषय विविधता इस संग्रह की विशेषता है। हर समकालीन चिंता से उनका सरोकार है। संचार माध्यमों के नकारात्मक प्रायोजित और अति आग्रही रवैये और उसके असर पर शेर देखिए:
असर टीवी पे चलती बहस का इतना हुआ
बात शांति की भी करते लोग हैं आवेश में।
पवनेंद्र पवन की गजलों की भाषा में लोक विद्यमान है तो भाव में लोकमानस का बोध परिलक्षित होता है। लोक तत्त्व रचनाकार की प्रमाणिक अनुभूतियों से निःसृत है और ईमानदारी से अभिव्यक्त हुआ है। परंपरा से जुड़े होने की नुमाइश का उपक्रम नहीं है। भाव व शिल्प के सामंजस्य का निर्वहन करता यह गजल संग्रह वैचारिकता व रचनात्मकता का सहकार है। पठनीय तथा संग्रहणीय है।
-चंद्ररेखा ढडवाल
मानव विज्ञान को समर्पित पुस्तक
समीक्षित पुस्तक ‘शोध-बोध’ विज्ञान व काव्य की अनूठी साहित्यांजलि है जिसमें डा. अनेक राम सांख्यान (घुमारवीं) वरिष्ठ मानव विज्ञानी ने खंड-एक में सात लेखों तथा खंड-दो में पैंतीस कविताओं का समावेश किया है। इस पुस्तक को डा. एसआरके चोपड़ा संस्थापक हैडमानव विज्ञान पंजाब यूनिवर्सिटी एवं भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जी को समर्पित किया है। लेखों में आपबीती, घुमारवीं मध्य शिवालिक क्षेत्र से प्राप्त प्राचीन दुर्लभ कपिमानवों के जीवाश्म, मध्य नर्मदा घाटी की पाषाण समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर, डार्विन उद्वाविकास एवं हिंदू दर्शन, धर्म विज्ञान समन्वय आदि का सारगर्भित वैज्ञानिक दृष्टिकोण में वर्णन किया है। खंड दो में हिंदी, कहलूरी, अंग्रेजी, बंगला भाषा की कविताओं में सामाजिक, सांस्कृतिक, यात्रा संस्मरण, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक कुरीतियों पर सरल, सुबोध, सरस भाषा में कितने ही चित्ताकर्षक, मनोहारी भाव चित्रण किए हैं। ‘मेरी मैत्री तुम्हारा कारगिल’ कविता में देश प्रेम व स्वाभिमान की भावना, ‘नई सदी के सपने’ कविता में भारत देश को पुनः विश्व गुरु बनाने की चाह स्पष्ट झलकती है। ‘स्लमगॉड’ में चीन यात्रा, ‘पीत सवाना घास’ में अफ्रीका के सफारी वन्य प्राणियों की शानदार काव्यात्मक प्रस्तुति इसके आकर्षण हैं। पुस्तक में प्राचीन दुर्लभ कपि मानवों के जीवाश्म, औजार, पेलियो म्यूजियम गैलरी के रंगीन चित्र इसकी शोभा को चार चांद लगाते हैं। लेखक के परिश्रम को देखते हुए मूल्य केवल दो सौ रुपए उचित प्रतीत होता है। समीक्षक को आशा ही नहीं, अपितु पूर्ण विश्वास है कि साहित्य जगत में इस पुस्तक का पाठकों में अवश्य ही स्वागत होगा और यह एक संग्रहणीय पुस्तक साबित होगी।
-रवि कुमार सांख्यान, बिलासपुर