बहिष्कार की राजनीति

कृषि सुधार बिलों के मद्देनजर कांग्रेस समेत प्रमुख विपक्षी दलों ने संसद की कार्यवाही का बहिष्कार किया है। विपक्षी सांसद सदन में नहीं हैं और संसद के परिसर में गांधी की प्रतिमा के सामने धरने पर भी नहीं हैं। यह गांधीगीरी का एक उदाहरण हो सकता है। बहिष्कार का एक और कारण राज्यसभा में आठ विपक्षी सांसदों का निलंबन भी है। नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद ने निलंबन वापस लेने का आग्रह किया था, लेकिन सभापति वेंकैया नायडू का दो टूक जवाब था कि सांसद अपने अलोकतांत्रिक, हिंसक और अभद्र व्यवहार के लिए माफी मांगें, तो निलंबन रद्द किया जा सकता है। यह निर्णय संसद के नियमानुसार है, जिसमें पूर्वाग्रह की छाया तक नहीं ढूंढनी चाहिए। विपक्ष अपने निर्लज्ज, अपशाब्दिक व्यवहार के लिए शर्मिंदा नहीं है, लिहाजा माफी की अपेक्षा करना भी बेमानी है। लब्बोलुआब यह है कि मंगलवार से संसद के दोनों सदनों से विपक्ष अनुपस्थित रहा है। क्या हमारे गणतंत्र में ऐसी ही संसद की कल्पना की गई थी? विपक्ष की गैर-हाजिरी में ही सात बिल राज्यसभा में और चार बिल लोकसभा में पारित किए गए हैं। बेशक संसदीय कार्यवाही में यह प्रक्रिया असंवैधानिक नहीं है, लेकिन किसी भी बिल की पूर्णता तभी साबित होती है, जब पक्ष और विपक्ष के सांसद अपना अभिमत देते हैं और मांग के मुताबिक मत-विभाजन भी होता है।

 संसद के भीतर सिर्फ  सत्ता पक्ष या तटस्थ सांसद ही मौजूद हैं। यदि ऐसे में स्पीकर और सभापति संसद सत्र को समय-पूर्व ही, अनिश्चित काल के लिए, स्थगित करने का निर्णय लेते हैं, तो विपक्ष की राजनीति बहिष्कार तक, सड़कों पर ही, सीमित होकर रह जाएगी। बहरहाल कृषि सुधार संबंधी तीनों बिल संसद से पारित हो चुके हैं। राष्ट्रपति कोविंद किसी भी समय हस्ताक्षर कर सकते हैं। नतीजतन बिलों का कानून बनना तय है। हालांकि विपक्षी सांसदों ने राष्ट्रपति से मुलाकात कर एक और कृषि सुधार बिल संसद में पारित किए जाने की मांग की, लेकिन अब यह व्यावहारिक नहीं है और न ही विपक्ष ने संकेत दिए हैं कि उनका बहिष्कार कब तक जारी रहेगा? हालांकि सरकार ने संसद में भी आश्वस्त किया है कि एपीएमसी मंडियां और किसानों की फसल का एमएसपी दोनों ही पूर्ववत जारी रहेंगे। विपक्ष का विश्लेषण हो सकता है कि घोषित एमएसपी एमएस स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों के मुताबिक है अथवा नहीं है! अब इस मुद्दे पर संसद के बाहर ही बहस चलेगी।

 सांसदों के असभ्य, अभद्र और असंवैधानिक आचरण के संदर्भ में राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश का लोकतांत्रिक सौहार्द्र और उदारता एक मिसाल साबित कर सकते हैं। जिन सांसदों ने सदन में ही उन पर हमला करने की कोशिशें की थीं, उनके लिए वह अपने घर से ही चाय-नाश्ता लेकर धरना-स्थल पर गए थे। उन्होंने अपनी मानसिक पीड़ा और अपमान भूलने का प्रयास किया, लेकिन विपक्षी सांसदों का विरोध ‘संसदीय’ के बजाय ‘निजी’ रहा और उन्होंने स्नेहिल चाय को ही ठुकरा दिया। कहां गई गांधीगीरी? विपक्षी सांसदों ने राज्यसभा में उपसभापति के सामने हुड़दंग मचाया था और बाद में अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस भी दिया था, जबकि हरिवंश लगातार विरोधियों के बीच बैठकर विनम्रता से कह रहे थे कि वह भी उन सांसदों में से एक हैं, उनके ही भाई हैं, लेकिन फिर भी विपक्षी सांसदों का विरोध जारी रहा मानो हरिवंश चाय में कोई ‘जहर’ घोल कर लाए  हों! यह हमारी संसद का बुनियादी चरित्र नहीं हो सकता। ऐसे राजनीतिक टकराव देश की जनता को क्या संदेश देंगे, शायद हमारे नाराज सांसदों ने इतना विचार नहीं किया है। विपक्ष के सांसदों को इतना जरूर सोचना चाहिए कि कोई भी सरकार किसान-विरोधी फैसले नहीं ले सकती। यदि कथित कंपनियों के हित में किसानों का कोई अहित होता है, तो निश्चित तौर पर उसकी कीमत सरकार को ही चुकानी पड़ेगी। यह एहसास तो सरकार को भी होगा!