हिंदी तेरा चौबारा…

अशोक गौतम

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खैर, पखवाड़ा बीता! दो-चार दिन और बीते तो सोचा, अब तो हिंदी अपने पखवाड़े में इससे उससे मिलने के बाद रिलैक्स हो ही गई होगी। सो, उससे पहले की तरह बातें करने को फोन मिला दिया। पहले तो उसने फोन ही नहीं उठाया तो लगा, ताजा ताजा कार्यक्रमों में शिरकत करने के नशे में पड़ी होगी। पखवाड़ा भर चने के झाड़ पर चढ़ने का नशा जाते जाते ही जाएगा। और जब नशा उतरेगा तब…सारे सवाल जवाब अंग्रेजी में ही डील होंगे… पर तभी उसने फोन उठा लिया तो मैंने चैन की सांस लेते कहा, ‘थैंक गॉड! तुम सकुशल तो हो न? तुम फोन नहीं उठा रही थी तो मैं तो तुम्हारी कसम, डर ही गया था हिंदी! …और कहो, अब कैसा फील कर रही हो?’ ‘बहुत थकी हूं डियर! अभी भी बिस्तर पर ही पड़ी हूं। उठा ही नहीं जा रहा।’ उसने कराहते हुए कहा तो मैं डरा। ‘बिस्तर पर? बिस्तर पर पड़े अंग्रेजी।’ सुन उसने दर्द में भी ज्यों अंगड़ाई ली, ‘नो यार! जैसा तुम समझ रहे हो वैसा कुछ नहीं।

क्या है न कि इत्ते प्रोग्रामों में पार्टिसिपेट करते करते मत पूछो कितना थक गई हूं। अंग अंग टूट रहा है। जिस प्रोग्राम में भी गई, एक से एक किराए के दीवाने। मेरी प्रशंसा में ऐसे कसीदे पढ़ रहे थे कि सच पूछो तो डियर मेरे तो कान ही पक गए। अपने पर तो हंसी आई ही, उन पर भी हंसी आई। डियर! हिंदी के राइटर होने के चलते तुम तो महीने में चौंतीस दिन किसी न किसी बीमारी के शिकार हुए ही रहते हो। तुम्हारी नजर में कोई एक्सपर्ट कान का डॉक्टर हो तो बताना प्लीज! अपनी झूठी प्रशंसा में कविताएं सुन सुन कर मेरे कान पक गए हैं। लग रहा है इनसे पस अब बही कि अब बही।’ ‘खूब मौज मस्ती की होगी तुमने सरकारी पैसे पर?’‘काहे की मौज मस्ती डियर! मौज मस्ती तो वे कर गए। मैं तो परेशान ही हो गई थी। मेरा प्रशंसक होने का दिखावा करता पूरे पखवाड़े कोई मेरा हाथ चूमता रहा तो कोई मेरे गाल। कोई मेरी जुल्फों से खेलने की ताक में रहता तो कोई चाहता था कि मैं उसके साथ ठुमके लगाऊं, उसकी बेसुरी तान में अपने सुर मिलाते गाऊं। कोई मेरी उदास आंखों में वह खाऊ सौंदर्य देख रहा था कि पूछो ही मत। इन दिनों के बीच मैंने ऐसे ऐसे कवियों की कविताएं सुनी कि अब उन कविताओं के बारे में सोचती हूं तो कै होने लगती है।

पर क्या करती, कविताएं मेरी प्रशंसा में थीं, सो एचुपचाप कै पीनी पड़ी। हाय रे मेरे पाक्षिक शुभचिंतको। मेरे पखवाड़े के मेरे आयोजनों में सही कवियों का टोटा होने के चलते कौवे तो कवि हो ही गए थे, पर लोमड़, सियार, चमगादड़ तक पखवाड़े का लाभ उठा वैसे ही विख्यात, प्रसिद्ध कवि हो गए थे जैसे पितृ अमावस्या के दिन पिहोवा में गधे तक पितरों को शर्तिया मोक्ष दिलवाने वाले हो उठते हैं। एक बात तो बताना डियर, अधिकतर मेरे प्रेमी मेरे पखवाड़े के आंरभ में ही जन्म क्यों लेते हैं और पखवाड़ा खत्म होते ही क्यों अंग्रेजी के परमधाम को प्राप्त हो जाते हैं?’ ‘सॉरी! तुम्हें ऐसे में डिस्टर्ब किया!’ ‘नो नो! पर टिल आई एम सो इग्जास्टिड कि…’ ‘कोई बात नहीं। जब रिलैक्स हो जाओ तो बता देना। अब साल भर रहूंगा तो तुम्हारे ही साथ। ओके! टेक केयर! अपना ख्याल रखना। हिंदी तेरा चौबारा, फेक हिंदीयन के पास। जो करनगे सो भरनगे, तू क्यों थकी उदास। गुड नाइट!’ मैंने उसे हौसला देते कहा और फोन काट दिया। हाय बेचारी हिंदी! मेरे खुदा, मुझे माफ  करना! बेचारी थकी हारी हिंदी को मैंने यों ही डिस्टर्ब कर दिया।