कबीरा आप ठगाइये: अजय पाराशर, लेखक, धर्मशाला से हैं

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

पंडित जॉन अली सुबह से कई बार फोन कर चुके थे। लेकिन मैं फोन नहीं उठा रहा था। मेरे फोन की बार-बार बजती बेहूदी रिंगटोन से परेशान मेरी धर्मपत्नी ने किसी आईएएस की तरह बड़े सलीके से अपनों शब्दों को चबाते हुए मुझे धमकाया, ‘‘अगर इस बार आपने फोन नहीं उठाया तो मैं पंडित जी से आपका उठना-बैठना खत्म करवा दूंगी। बोल दूंगी कि आप जानबूझ कर फोन नहीं उठा रहे और आपको उसी तरह ़गालियां दे रहे हैं, जैसे कोई माननीय कैबिनेट में बर्थ न मिलने पर अपनी पार्टी को गरियाता है।’’ उनकी धमकी सुनकर मैंने सोचा कि यह बापू की लाठी नहीं, कोतवाल का लट्ठ है। जो केवल सिर फोड़ने के काम ही आता है। ़गरीब के सपनों की तरह मैं उन्हें खोना नहीं चाहता था। इसीलिए उन्हें ़खुद ही फोन लगा दिया। कोरोना वायरस की तरह घात लगाए पंडित जी तुरंत मोर्चा खोलते हुए बोले, ‘‘अमां यार! ऐसी क्या गुस्ता़खी हो गई हमसे जो मुंह फेर रहे हो।

मैंने तो तुम्हें कभी किसी माननीय, अ़फसर या कर्मचारी की तरह नहीं ठगा। तुमने जब भी कुछ पूछा है, बतोले बाबा की तरह ईमानदारी के साथ जवाब दिया है।’’ वह सांस लेने के लिए रुके तो मैंने जिज्ञासु बच्चे की तरह प्रश्न उछाल दिया, ‘‘कबीर के शब्दों में ‘कबीरा आप ठगाइये’ के संदर्भ में जनता और कबीर के अपने आप ठगे जाने में क्या समानताएं और असमानताएं हैं?’’ पंडित जी बोले, ‘‘यार, हमेशा बेताल की तरह मेरे कंधे पर सवार होकर सवाल पूछते रहते हो। ़खैर! पूछा है तो उत्तर देना ही पड़ेगा। कोई अंतर नहीं है दोनों के ठगे जाने में। दोनों जानबूझ कर अपने को ठगाते रहते हैं। ़फ़र्क है तो इतना कि जहां कबीर करुणा से भरे हुए हैं, वहीं जनता करुणा की पात्र है। जनता बेचारी को दया भी नसीब नहीं होती। उसके जीवन में मंगल उतनी ही दूर है जितना मंगल हमसे। हालांकि उसके भाग्य में ठगा जाना ही लिखा है। पर उसे ठगे जाने में वही आनंद मिलता है, जो कबीर को मगहर में प्राप्त हुआ था। जैसे कबीर को संतों की सेवा में सुख मिलता था, वैसा ही सुख जनता नेताओं की सेवा में ढूंढ़ती है।

 लोकशाही में राजशाही को पालते हुए अपने प्रिय नेताओं के जाने के बाद भी उनके पपलुओं और पपलियों को पालती रहती है। जैसे अपने राम में रमे कबीर कोई भेद नहीं देखते थे, वैसे ही अपने नेताओं को पूजती जनता, उनके दामन में लगे दा़गों को बिना देखे उन्हें सदन में भेजती रहती है। वह बेचारी तो यह भी नहीं देखती कि लोकतंत्र की मंडी में जो बिकते हैं, घोड़े कहे जाने के बावजूद वे घोड़े हैं भी या नहीं। किसी उद्घोषित घोड़े में योग्यता न होने के बावजूद वह उसे घोड़े की खाल ओढ़ाते रहती है। लेकिन दोनों में एक घोर असमानता भी है। सदियों से ज़ुल्मों का बोझ सहते-सहते शायद जनता की पीठ और चमड़ी पत्थर जैसे बेज़ान और बेहिस हो गई है। वरना अनुभव के बाद जैसे कबीर कह उठे थे, ‘लिखा-सुनी की है नहीं, देखा-देखी बात’, अपनी पीठ पर तथाकथित घोड़े ढोने वाली जनता कुछ तो कह ही सकती थी। लगता है, यहां जनता पर बुद्ध का शून्यवाद हावी हो जाता है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने सघन अनुभव के बाद भी मौन ही रहती है।’’ पंडित जी का दर्शन सुनने के बाद मैं माननीयों की तरह अपने बगल में रखा मेज थपथपाने पर मजबूर हो उठा।