कर्म बंधन से मुक्त

प्रारब्ध कमर् वह है जो मनुष्य को इस जमा की हुई राशि में से एक जन्म के भोगने के लिए अर्थात उम्र भर के खर्च के तौर पर मिलती है और इस राशि को हर जन्म के शुरू में ही कुल राशि के भंडार में से प्रकृति के नियम के अनुसार अलग किया जाता है। अब चूंकि आमतौर पर मनुष्य की ताजा आमदनी इसके खर्च से कई गुना अधिक होती है, इस कारण से मनुष्य का संचित कर्म रूपी खजाना दिन-प्रतिदिन बढ़ता चला जाता है और इसमें निरंतर तरक्की होती जाती है और इसी प्रकार जीव के द्वारा लिए गए करोड़ों जन्मों के नक्शे उसके सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के अंदर जमा पड़े हुए हैं।

 यह नक्शे क्या हैं? यह नक्शे सभी योनियां हैं जो जीव के द्वारा भोगी गई हैं। अतः इन्हीं के कर्मों के प्रभाव से जीव को भिन्न-भिन्न प्रकार की योनियों के चक्कर में घूमना पड़ता है और वह ठोकरें खाता फिरता है। अतः जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, एक-एक कर्म का ध्यान, एक-एक कर्म का नक्शा जो सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के भीतर जमा पड़ा हुआ है, यह एक ही नहीं, बल्कि लाखों योनियों के पैदा करने की आधारशीला है। यह एक प्रकार का बीज है और इस बीज से अनेक बीज पैदा होते जाते हैं और इनसे बेशुमार वृक्ष बन जाते हैं। वृक्षों और बीजों का सिलसिला चल निकलता है। इसी प्रकार एक-एक कर्म रूपी बीज के अंदर लाखों योनियां मौजूद रहती हैं, इन योनियों में फिर करोड़ों और अरबों योनियों के बीज पैदा होकर यह सिलसिला बढ़ता और फैलता चला जाता है। यही कर्म बंधन है, जिसमें जकड़ा हुआ जीव सदैव दुख और क्लेश का शिकार बनता चला जाता है। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि इस कर्म बंधन से छुटकारा कैसे पाया जाए भ्रम और वहम की जंजीरें कैसे टूटें। महात्मा फरमाते हैं कि पूर्ण सद्गुरु की शरण में आकर अपने निज स्वरूप की पहचान करना ही एकमात्र इस कर्म बंधन से मुक्त होने का उपाय है इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।

सतगुरु आउंदे दुनियां उत्ते दुनियां दे उद्धार लई,

सतगुरु आउंदे दुनियां उत्ते एके दे परचार लई। (अवतार बाणी)

कबीर सतगुरु नाम से, कोटि विधन हरि जाय।

राई समान बसंदरा, केता काठ जराय।।  (कबीर साखी संग्रह)

यथैधांसि समद्धो र्भस्म सात्कुरुतेऽर्जुन।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा। (श्रीमद्भगवतगीता)

जैसे प्रज्वलित अग्नि ईधन को भस्म कर देती है उसी प्रकार हे अर्जुन ज्ञान रूपी अग्नि भौतिक कर्मों के समस्त फलों को जला डालती है। अब एक और प्रश्न पैदा होता है कि किस भांति कर्म, ज्ञान रूपी अग्नि में भस्म होते हैं। संपूर्ण अवतार बाणी इन कर्मों से छुटकारा पाने की युक्ति के विषय में यूं प्रश्न चिन्ह लगा रही है।

कर्मां दी एह नीति की साडे सिर ते भार है केहड़ा। रूह जिस नाल आजाद है हुंदी ऐसी युक्ति केहड़ी ए।।

 (अवतार बाणी)