महासमाधि में शयन

गतांक से आगे…

इसी संबंध में बातचीत हो रही थी कि स्वामी  रामकृष्णानंद जी के पिता शाक्त, तांत्रिक पंडित ईशानचंद्र भट्टाचार्य महोदय मठ में पधारे। उन्हें देखकर स्वामी जी बहुत प्रसन्न हुए। पंडित जी के साथ परामर्श करने के बाद स्वामी जी ने स्वामी शुद्धानंद और बोद्धानंद जी को पूजा की सामग्री जुटाने का आदेश दिया।

फिर थोड़ी सी चाय पीकर मठ में ठाकुर घर में प्रविष्ट हुए। थोड़ी देर बाद लोगों ने देखा कि ठाकुर घर के सभी दरवाजे और खिड़कियां बंद हैं। सभी लोग हैरान थे कि पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ था। तीन घंटे का समय बीत जाने पर भजन गुनगुनाते स्वामी जी सीढि़यों के नीचे उतरे। फिर मन चल निज निकेतन…गाना गुनगुनाते वे प्रांगण में टहलने लगे। भोजन की घंटी बजी। स्वामी जी सभी के साथ भोजन करने बैठे। वे प्रायः अपने ही कमरे में भोजन कर लेते थे। उन्हें साथ बैठे देखकर सभी खुश थे। भोजन के बाद कुछ आराम करके उन्होंने ब्रह्मचारियों को संस्कृत की कक्षा में बुला लिया। पहले यह कक्षा तीन बजे लगती थी। आज सवा बजे ही पाठ शुरू हो गया। तीन घंटे वे व्याकरण पढ़ाते रहे। इसके बाद स्वामी प्रेमानंद को साथ लेकर घूमने निकले। वापस आकर बरामदे में बैठे और इधर-उधर की बातें करते रहे। संध्या आरती का समय हुआ। सभी ठाकुर घर की तरफ चले और स्वामी जी दुमंजिले घर अपने कमरे में आ गए।

एक ब्रह्मचारी सदा स्वामी जी के साथ रहते थे, स्वामी जी ने अपने कमरे की सभी खिड़कियां और दरवाजे खोलने का आदेश दिया। वे खिड़की के पास खड़े होकर दक्षिणेश्वर की तरफ देखने लगे। ब्रह्मचारी को बाहर बैठ जप करने का आदेश देकर खुद पद्मासनावस्था होकर जप करने लगे। कोई घंटे भर बाद वे उठकर लौट गए और ब्रह्मचारी पंखा झोलने लगे, क्योंकि वे सोए हुए थे। इस समय रात्रि के लगभग नौ बजे थे। जपमाला हाथ में लिए वे सोए हुए थे। निस्पंद व स्थिर। एकाएक उनका हाथ कांप उठा और अस्पष्ट स्वर में कुछ कराहने का सा शब्द हुआ। एक-दो लंबे-लंबे सांस भरे, फिर उनका सिर सिरहाने से सरक गया। वो ब्रह्मचारी पहले तो घबरा गया, फिर नीचे जाकर सबको खबर दी। कितने ही संन्यासी उठकर ऊपर आ गए। देखा तो गोपीश्वर महासमाधि में शयन कर रहे थे। मठ के लोगों के लिए यह अमावस्या की रात और ज्यादा अंधकारमय हो गई थी।

स्वामी विवेकानंद की वाणी ः

हम ऐसे आदमियों को चाहते हैं, जिनके शरीर की नसें लोहे की तरह और स्नायु इस्पात की तरह मजबूत हों। जिनकी देह में ऐसा मन हो, जिसका संगठन वज्र से हुआ है। हमें चाहिए कि पराक्रम मनुष्यत्व, क्षत्रवीर्य, ब्रह्मतेज। कमजोर दिमाग कुछ भी नहीं कर सकता, अब हमें ऐसा रद्दी दिमाग बदल डालना होगा और मस्तिष्क को बदल लेना पड़ेगा। तुम लोग बलवान बनो। गीता का पाठ करने की अपेक्षा तुम फुटबाल खेलो, तो स्वर्ग के बहुत नजदीक पहुंच सकते हो। तुम्हारा शरीर जरा तगड़ा हो जाएगा, तो तुम पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा गीता को समझ सकोगे। वीर्य ही साधुता है और दुर्बलता ही पाप है, यदि उपनिषदों में कोई ऐसा शब्द है जो वज्र की भांति जोर से अज्ञान की वेदी पर गिराकर उसे छिन्न-भिन्न कर डाले, तो वह शब्द है अभय, निडर हो जाना।