प्रभु का स्मरण

भगवान निम्नतम चित्तदशा के लिए भी कह रहे हैं कि इस दशा में भी, इस अंधकार में पड़ा हुआ भी यदि कोई अनन्य भाव से प्रभु का स्मरण करता है, तो ईश्वरीय ज्ञान की प्रकाश रूपी किरण इस तक भी पहुंच जाती है और यह मुक्त हो जाता है। अब वैश्य दूसरी कोटि है। वैश्य की जो कामनाएं, वासनाएं और आकांक्षाएं हैं वह मानसिक होती हैं, सूक्ष्म होती हैं। अतः वैश्य धन के लिए जीवन व्यतीत करता है, धन सूक्ष्म बात है और धन से मिलने वाला रस मन को मिलने वाला रस है। इसके अतिरिक्त वैश्य यश के लिए जीता है, पदवी के लिए जीता है। इन सबसे मिलने वाला रस मन के लिए मिलने वाला रस है।

अब मजे की बात यह है कि वैश्य धन के लिए, पदवी के लिए, प्रतिष्ठा के लिए अपने शरीर को भी गंवाने को तैयार हो जाता है। एक लिहाज से शूद्र शरीर से स्वस्थ होता है जबकि वैश्य अस्वस्थ होने लग जाता है, क्योंकि शूद्र के पास प्रकृति के संपर्क का द्वार बहुत स्पष्ट होता है, संवेदनशील होता है, जबकि वैश्य प्रकृति के साथ संवेदना खोने लगता है। अतः वैश्य आत्मा की ओर एक कदम ऊपर उठ जाता है, क्योंकि शरीर से आत्मा तक जाने में बीच में मन रूपी पड़ाव को पार करना जरूरी है अर्थात मन से गुजरना ही पड़ता है। शूद्र को परमात्मा की यात्रा में किसी न किसी क्षण वैश्य होना ही पड़ता है परंतु यह भी एक पड़ाव ही होता है, मंजिल नहीं।

बेशक इस अवस्था में मन कुछ हद तक मूल्यवान प्रतीत होने लगता है। उदाहरण के तौर पर भोजन मूल्यवान नहीं रह जाता, वासना इतनी मूल्यवान नहीं रह जाती जितना मन के रस अर्थात पदवी, प्रतिष्ठा और यश-कीर्ति आदि। भगवान श्रीकृष्ण फरमाते हैं कि वो जो अभी मन में ही घिरे हैं और आत्मा तक जिनका कदम नहीं उठा है अगर वो भी प्रभु को स्मरण करें, तो इन तक भी प्रभु ज्ञान रूपी किरण पहुंच जाती है। तीसरी कोटि है क्षत्रिय की। क्षत्रिय का अर्थ है जो शरीर और मन दोनों से ऊपर उठ कर आत्मा में जीना शुरू कर दे, जो आत्मा में जीने की चेष्टा करे।

इसके लिए शरीर का भी मूल्य नहीं होता, मन का भी मूल्य नहीं होता, उसके लिए तो केवल आत्म-सम्मान का मूल्य है। अतः क्षत्रिय शरीर को त्यागने के लिए तैयार हो जाता है, धन का भी त्याग कर सकता है तथा मन  की भी चिंता छोड़ने को तैयार हो सकता है परंतु आत्म सम्मान इसके लिए सबसे मूल्यवान हो जाता है। यह इसके आसपास ही जीने लग जाता है। आत्म सम्मान के लिए सब कुछ गंवा सकता है। चौथी और अंतिम कोटि है ब्राह्मण की। ब्राह्मण का अर्थ है जो पूर्ण सतगुरु की कृपा द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार करके ब्रह्म के ही एहसास में जीने लगे, इसके लिए अब न शरीर का कोई मूल्य रह जाता है, न मन का कोई मूल्य रह जाता है,यह आत्मा से भी ऊपर उठ जाता है, इसके लिए केवल परमात्मा ही मूल्यवान रह जाता है। यह केवल परमात्मा की रजा में ही जीने लग जाता है।  यही है चित्त दशा पर आधारित चार प्रकार के व्यक्तित्व की कीमिया।