प्रादेशिक साहित्य की अविरल धारा

साहित्य के कितना करीब हिमाचल-16

अतिथि संपादकःडा. हेमराज कौशिक

विमर्श के बिंदु

* हिमाचल के भाषायी सरोकार और जनता के बीच लेखक समुदाय

* हिमाचल का साहित्यिक माहौल और उत्प्रेरणा, साहित्यिक संस्थाएं, संगठन और आयोजन

* साहित्यिक अवलोकन से मूल्यांकन तक, मुख्यधारा में हिमाचली साहित्यकारों की उपस्थिति

* हिमाचल में पुस्तक मेलों से लिट फेस्ट तक भाषा विभाग या निजी प्रयास के बीच रिक्तता

* क्या हिमाचल में साहित्य का उद्देश्य सिकुड़ रहा है?

* हिमाचल में हिंदी, अंग्रेजी और लोक साहित्य में अध्ययन से अध्यापन तक की विरक्तता

* हिमाचल के बौद्धिक विकास से साहित्यिक दूरियां

* साहित्यिक समाज की हिमाचल में घटती प्रासंगिकता तथा मौलिक चिंतन का अभाव

* साहित्य से किनारा करते हिमाचली युवा, कारण-समाधान

* लेखन का हिमाचली अभिप्राय व प्रासंगिकता, पाठ्यक्रम में साहित्य की मात्रा अनुचित/उचित

* साहित्यिक आयोजनों में बदलाव की गुंजाइश, सरकारी प्रकाशनों में हिमाचली साहित्य

हिमाचल साहित्य के कितना करीब है, इस विषय की पड़ताल हमने अपनी इस नई साहित्यिक सीरीज में की है। साहित्य से हिमाचल की नजदीकियां इस सीरीज में देखी जा सकती हैं। पेश है इस विषय पर सीरीज की 16वीं किस्त…

डा. अशोक गौतम, मो.-9418070089

हिमाचल प्रदेश की साहित्यिक संपदा चाहे वह लोक साहित्य के रूप में हमें आनंद प्राप्त करवाती हो अथवा परिमार्जित साहित्य के रूप में, परंपरा से ही समृद्ध रही है। हिमाचल प्रदेश के पास जहां एक ओर अपना विभिन्न बोलियों का समृद्ध लोक साहित्य है, वहीं दूसरी ओर पहाड़ी बोली के साहित्यकारों से लेकर हिंदी भाषा के समृद्ध साहित्यकारों की विशाल शृंखला है जो चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल से होती हुई आज भी पहाड़ी बोली और हिंदी भाषा के साहित्यकारों की कलम के माध्यम से अविरल प्रवाहित हो रही है। यह सत्य है कि जिस तरह का समाज होगा, उसी तरह का साहित्य होगा। क्योंकि कहीं न कहीं साहित्यकार भी एक सामाजिक प्राणी ही होता है। इसलिए समाज की सोच के साथ-साथ साहित्य के कोण भी बदलते रहते हैं, साहित्य लेखन की रीतियां बदलती रहती हैं। पर चुनौतियां हर युग की समान होती हैं।

यही वजह है कि प्रदेश के साहित्यकारों के साहित्य लेखन के समय के साथ-साथ रूप-स्वरूप भले ही बदलते रहे, पर उसका उद्देश्य वही है जो साहित्य का हर युग में रहा है। उद्देश्य के बिना साहित्य नहीं होता। बिना उद्देश्य के जो साहित्य लिखा जाता है, वह दूसरे दिन बासी हो जाता है, गर्मियों के दिनों की रोटी की तरह। इसमें दो राय नहीं कि स्वतंत्रता के बाद से ही प्रदेश में साहित्य के उत्थान के लिए व्यक्तिगत, सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा अपने-अपने स्तर पर अपनी-अपनी तरह के प्रयास हुए हैं। व्यक्तिगत प्रयासों, गैर सरकारी साहित्यिक संस्थाओं की सीमाएं न होते हुए भी अपनी सीमाएं होती हैं।

हर प्रदेश सरकार ने प्रदेश में साहित्यिक माहौल बनाने के लिए वित्त की कमी आड़े नहीं आने दी। परंतु साहित्य के उत्थान के लिए प्रदेश सरकार की ओर से जिन असाहित्यिक-साहित्यिक पदों को प्रदेश में साहित्य के विकास का जिम्मा सौंपा गया या मिलता रहा, उन पदों पर कई बार ऐसे प्रतिष्ठित, लब्धप्राप्त असाहित्यिक साहित्यकार काबिज होते रहे जिनका नौकरी के सिवाय साहित्य से दूर-दूर का कोई सकारात्मक रिश्ता नहीं रहा।

अधिकतर बस, वे अपने पद को बचाए-बनाए रखने के लिए दाएं-बाएं इनके-उनके साहित्यकार इधर-उधर से पकड़ प्रदेश में साहित्य को समृद्ध करने की बुझी मशाल लिए मशालची हो चले रहते हैं। ऐसों की साहित्यिक हुंकार में बहुधा चीत्कार का स्वर ही अधिक सुनता रहा है। ये सब होने पर सबसे अधिक बहुधा अहित हुआ तो साहित्य का ही हुआ। वे तो अपने पद से देर-सबेर साहित्य का अहित कर अपने गले में सफल नौकरी की असाहित्यिक मालाएं डाले निवृत्त हो गए, पर उसके बाद हर बार जो नुकसान साहित्य का हुआ, उसकी भरपाई न हो सकी।

ऐसे चरणपादुकार सरकार द्वारा लेखकों हेतु नीति होने के बाद भी जब हिमाचली लेखकों की दो प्रतियां खरीदते हैं तो ऐसे मुंह बनाते हैं ज्यों किसी लेखक की पुस्तक को बेस्ट सैलर बनने का प्रमाणपत्र दे रहे हों। अब उन्हें कौन समझाए कि टिकाऊ साहित्यकार तो पानी की धारा सा होता है। वह दिन-रात बहता ही रहता है। कभी जमीन के नीचे, तो  कभी जमीन के ऊपर। उसकी अविरल धारा यहां नहीं तो वहां बहती दिखती रहती है। वह वैसा नहीं होता जो पारिश्रमिक वाले मंचों के सिवाय और कहीं होते ही नहीं। ऐसा होने पर सबसे अधिक नुकसान कहीं होता है तो साहित्य का होता है, साहित्यकार का नहीं। अगर ये रुके तो प्रदेश के साहित्य सृजन में अपने ही ढंग की नवगति  तो आए ही, साथ ही साथ दमखम वाली नई कलमें भी साहित्यलेखन की ओर उत्साहित हों।

बावजूद इन सब बाधाओं के, अपने-अपने स्तर पर प्रदेश के साहित्यकारों ने साझे प्रयासों से अपने साहित्यिक मुकाम हासिल किए हैं। अपने साहित्य के माध्यम से प्रदेश में रचे जा रहे साहित्य को राष्ट्रीय पहचान दिलवाई है या कि अपने रचे साहित्य के माध्यम से प्रदेश को देश में रचे जा रहे साहित्य की मुख्य धारा से जोड़ा है, जो कि प्रदेश में रचे जा रहे साहित्य के लिए गौरव की बात है। इसमें दो राय नहीं कि आज का युवा वर्ग साहित्य लेखन-पठन से कटता जा रहा है। उसके पास साहित्य पढ़ने का वक्त नहीं। इसका कारण जो प्रथम दृष्टया दिखता है, वह यह है कि आज उसकी साहित्यिक रुचियों पर व्यावसायिक रुचियां हावी होती जा रही हैं। वैसे साहित्य में अब करियर है भी कहां? जोड़-तोड़ साहित्य में जितनी चलती है, उतनी शायद ही कहीं चलती हो।

ऐसा होना भविष्य के साहित्य लेखन के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं। पर इसका मतलब यह भी नहीं कि आने वाले समय में साहित्य लिखना-पढ़ना ही बंद हो जाएगा। पर हां! साहित्य पढ़ना कम जरूर हो जाएगा। साहित्य लेखन तो धड़ाधड़ हो रहा है , होता रहेगा। कारण, आज जिसके पास कुछ करने को नहीं, कम से कम उसके पास लिखने को बहुत है। कोई उसे पढ़े या न! ऐसा होने पर कई बार तो लगता है जैसे हम बस, लिखने के लिए लिख रहे हों। ऐसे लिखने को कोई नहीं रोक सकता। लिखने वाला खुद रुक जाए तो बात दूसरी है।

कुल मिलाकर आज साहित्यिक लेखन की गरिमा के लिए सही मायनों में गुणात्मक प्रयास होना जरूरी है। वर्ना कल को कहीं ऐसा न हो अपनी ही खामियों के चलते हमारा साहित्य लेखन गौण हो जाए। इसके लिए आवश्यक है कि नए और पुराने, अपने और बेगाने लेखन को बराबर साथ लेकर चला जाए तो निश्चित रूप से यह कदम प्रदेश की साहित्यिक संपदा के लिए वरदान साबित होगा।