पुस्तक समीक्षा : ‘दृष्टि’ : लघुकथा का अभूतपूर्व प्रयोग

‘दृष्टि’ पत्रिका की खासियत यह रही है कि उसका प्रत्येक अंक विशेषांक होता है। पत्रिका का आठवां अंक है-‘‘मेरी प्रिय लघुकथाएं।’’ यह प्रयोग कहानी में हो चुका है और हिंदी के प्रख्यात कहानीकारों के संकलन प्रकाशित हो चुके हैं-‘मेरी प्रिय कहानियां।’ विधा के तौर पर अब लघुकथा पर सवाल नहीं किए जाने चाहिए, क्योंकि कुछ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में यह विधा शामिल की जा चुकी है। शोध-प्रबंध भी लिखे गए हैं और छात्रों ने एम.फिल. और पी.एच.डी. की डिग्रियां प्राप्त की हैं। जाहिर है कि यूजीसी स्तर पर लघुकथा को मान्यता मिल चुकी है। लिहाजा ‘दृष्टि’ का मौजूदा प्रयोग अभूतपूर्व और अभिनव कहा जा सकता है। पत्रिका के इस अंक को ‘संकलन’ की श्रेणी में ही रखा जा सकता है। गौरतलब यह है कि हिंदी में इतने लेखक लघुकथाएं लिख रहे हैं कि इस विधा पर ही केंद्रित पत्रिका और संकलन प्रकाशित किए जा रहे हैं। ये बेहद सुखद संकेत हैं।

‘दृष्टि’ में डा. बलराम अग्रवाल और माधव नागदा के दो आलोचनात्मक आलेख स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं कि लघुकथा के कथ्य और शिल्प क्या होने चाहिए और लघुकथाएं युवा मन को किस तरह प्रभावित करती हैं। यह सीमित दायरा है, क्योंकि किसी अन्य विधा की तरह लघुकथा के कथ्य भी विविध हो सकते हैं।

कथ्य की क्षणिकता, आकार और समस्या ऐसे हों कि लघुकथा ही बने। बहरहाल ‘दृष्टि-8’ का सबसे रचनात्मक योगदान यह है कि विशिष्ट लघुकथाकार के तौर पर प्रख्यात कथाकार एवं संपादक बलराम की पांच  लघुकथाओं को स्थान दिया गया है। बलराम को हम ‘सारिका’ जैसी पत्रिका के जरिए पढ़ते रहे हैं। विशिष्टता का यह सिलसिला स्वागत-योग्य और दस्तावेजी भी है, क्योंकि उसके जरिए समकालीन लेखन की परंपरा सामने आती है। बलराम की लघुकथाओं को आधार बनाकर विधा के शिल्प पर एक नई बहस शुरू की जा सकती है। बहरहाल मौजूदा अंक में 112 लघुकथाकारों की रचनाएं प्रस्तुत करना ही ‘पहाड़ खोदने’ के समान श्रम है। रचनाओं के साथ लेखकीय वक्तव्य भी दिए गए हैं कि ये लघुकथाएं उन्हें ‘प्रिय’ क्यों हैं? लिहाजा रचनाओं की गुणवत्ता पर कोई सवाल नहीं करना चाहिए। ‘दृष्टि’ पठनीय और संग्रहणीय है। उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण इसकी निरंतरता है।

-वीरेंद्र वीर मेहता

नए बदलावों के साथ ‘हरिगंधा’

हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से छपने वाली पत्रिका (साहित्यिक मासिकी) ‘हरिगंधा’ का अगस्त-2020 का स्वतंत्रता दिवस विशेषांक साहित्यिक बाजार में आ चुका है। इस बार पत्रिका ने बड़े पैमाने पर बदलाव किए हैं। संपादकीय ‘बदलावों के रुझान’ में मुख्य संपादक डा. चंद्र त्रिखा कहते हैं कि बदलाव का अर्थ मूल सृजनशीलता से छेड़छाड़ नहीं है। प्रयास यह रहेगा कि परंपरा व आधुनिकता के मध्य कुछ ऐसा हो जिससे न तो लेखन की गति प्रभावित हो, न ही उच्छृंखलता का आभास हो। साहित्यिक पत्रकारिता की अपनी गरिमाएं एवं अपनी मर्यादाएं हैं।

इस अंक में जयशंकर प्रसाद, निराला, गिरिजाकुमार माथुर, माखनलाल, सुभद्रा कुमारी चौहान, रामधारी सिंह दिनकर, अटल बिहारी वाजपेयी, केदारनाथ सिंह, प्रदीप, श्रीकांत वर्मा, पाब्लो नेरुदा, सत्यप्रकाश उप्पल व डा. पूर्वा की चुनिंदा कविताएं पाठकों को विभिन्न साहित्यिक रसों का रसास्वादन करवाती हैं। थियेटर फेस्टीवल और कोरोना महामारी जैसे विषयों पर विचारोत्तेजक लेख पाठकों के कई प्रश्नों को सुलझाते हैं। कई अन्य आलेखों के माध्यम से आजादी के दिनों को भी बखूबी याद किया गया है। आलेखों के साथ कई ऐतिहासिक चित्र आजादी की लड़ाई का बखूबी रेखांकन करते हैं। हिंदी भाषा में यह पत्रिका अपनी सरल भाषा के लिए जानी जाती है। एक प्रति का मूल्य 15 रुपए है, जबकि वार्षिक चंदा मात्र 150 रुपए रखा गया है। यह पत्रिका का 312वां अंक है, जो अपनी ज्ञानवर्द्धक सामग्री के कारण आकर्षक बन पड़ा है।

– फीचर डेस्क