राज्यसभा सांसदों का निलंबन

कृषि संशोधन बिलों पर राज्यसभा में खूब हंगामा हुआ। अराजकता फैल गई। सांसदों के ऐसे व्यवहार की कोई कल्पना तक नहीं कर सकता। सभापति और उपसभापति के आसन के करीब आकर सांसद नारेबाजी करते थे। ऐसे दृश्य हमने हर सरकार के दौरान देखे हैं, लेकिन अब तो सांसद हिंसक होने लगे थे। सभापति के आसन पर ही चढ़ने की कोशिश की, उपसभापति के सामने स्थापित माइकों को ही उखाड़ कर तोड़ने के प्रयास किए और संसद के उच्च सदन की नियम-पुस्तिका को ही फाड़ कर चिंदी-चिंदी करने का रोष प्रकट किया, तो यकीनन देश और नागरिकों के कई मोहभंग हुए होंगे!  सत्ता और विपक्ष के मायने यही आक्रामकता और हिंसक व्यवहार हैं क्या? बिल ध्वनिमत से पारित होते रहे हैं। यह कोई असंवैधानिक प्रक्रिया नहीं है। यदि किसान संबंधी बिलों से विपक्ष बेहद असंतुष्ट है और उन्हें ‘डेथ वारंट’ की संज्ञा दे रहा है, तो वह संयम से और अपनी सीटों पर खड़े होकर (कोराना काल में बैठे हुए ही) मत-विभाजन या संशोधन की मांग कर सकता है। सभापति मांग को मानने को बाध्य हैं, लेकिन आसन के सामने हुड़दंग मचाकर सभापति या उपसभापति को विवश नहीं किया जा सकता। चूंकि माइक तोड़ दिए गए थे, लिहाजा कुछ पलों के लिए आसन की आवाज भी खामोश हो गई थी।

ऐसा लगा मानो देश का गणतंत्र और संविधान ही चुप करा दिए गए हों! बेशक किसी भी बिल, प्रस्ताव या मुद्दे पर दोनों पक्षों में विरोधाभास हो सकते हैं। यह व्याख्या का सवाल है, लेकिन संसद का सदन ‘अखाड़ा’ बनाया जा रहा है। सदन के भीतर ही बहस कीजिए और बहुमत से प्रस्ताव पारित कीजिए। हुड़दंग और हिंसा दिखा कर कोई भी पक्ष अपना जनाधार व्यापक नहीं कर सकता। देश के किसान एकदम विपक्षी दलों के समर्थक हो जाएंगे, ऐसा राजनीति में संभव नहीं होता। आंदोलित किसान भी विपक्ष के पालेदार या केंद्र सरकार के घोर विरोधी नहीं हैं। किसानों के जो सवाल, भ्रम और आशंकाएं हैं, खुद प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री को उन्हें अलग-अलग समूहों में बुलाकर संबोधित और आश्वस्त करना चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री का बयान ‘अंतिम शब्द’ होता है। उसकी समीक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय है। बहरहाल राज्यसभा में हंगामे और अपशब्दों के इस्तेमाल के मद्देनजर सभापति एवं उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने बेहद कड़ी कार्रवाई करते हुए आठ विपक्षी सांसदों को शेष सत्र के लिए निलंबित कर दिया है।

 उन सांसदों में तृणमूल कांग्रेस के डेरेक ओ’ब्रायन, आम आदमी पार्टी के संजय सिंह, कांग्रेस के राजीव साटव आदि हैं। सिर्फ  यही नहीं, सभापति ने उपसभापति के खिलाफ  लाए गए अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस को भी खारिज कर दिया है। इस नोटिस पर विपक्ष के 12 दलों के करीब 100 सांसदों ने हस्ताक्षर किए थे। बहरहाल अब किसान और कृषि को लेकर सभी तीन बिल संसद के दोनों सदनों से पारित हो गए हैं। अब राष्ट्रपति को हस्ताक्षर करने की औपचारिकता निभानी है। उसके बाद बिल कानून बन जाएंगे और अध्यादेशों का स्थान लेंगे। कानून की प्रक्रिया और दिशा-निर्देश संबंधी काम कृषि मंत्रालय का है। बहरहाल गणतांत्रिक व्यवस्था में संविधान और संसद की गरिमा और मर्यादा को बरकरार रखना सांसद का बुनियादी दायित्व है, क्योंकि उनसे उसकी छवि भी जुड़ी है। संसद के कामकाज और रखरखाव के लिए हर साल करोड़ों रुपए का बजट पारित किया जाता है, लिहाजा सार्थक तौर पर उसे खर्च करना भी औसत सांसद का ही दायित्व है। अब किसान आंदोलन सड़कों पर है। वे भी नुकसान पहुंचा सकते हैं, क्योंकि अभी वे गुस्से और आक्रोश में हैं, लिहाजा संसद में ध्वनिमत से बिलों को पारित कराना ही पर्याप्त नहीं हैं। वे भी इसी देश के नागरिक हैं, लिहाजा प्रधानमंत्री यथाशीघ्र पहल करें।