रणछोड़ जी मंदिर

द्वारका में द्वारिकाधीश मंदिर के अतिरिक्त श्री कृष्ण जी का एक और भी भव्य मंदिर है, जो उनसे जुड़ी एक रोचक कथा का प्रतीक है, जिसके चलते इस मंदिर को रणछोड़ जी महराज मंदिर के नाम से पुकारा जाता है। यहां गोमती के दक्षिण में पांच कुएं हैं। निष्पाप कुंड में नहाने के बाद यहां आने वाले श्रद्घालु इन पांच कुओं के पानी से कुल्ले करते हैं और तब रणछोड़जी के मंदिर में प्रवेश करते हैं।

रणछोड़जी का मंदिर द्वारका का सबसे बड़ा और सबसे सुंदर मंदिर माना जाता है। रण का मैदान छोड़ने के कारण यहां भगवान कृष्ण को रणछोड़जी कहते हैं। मंदिर में प्रवेश करने पर सामने ही कृष्ण जी की चार फुट ऊंची भव्य मूर्ति है, जो चांदी के सिंहासन पर विराजमान है। यह मूर्ति काले पत्थर से निर्मित है, जिसमें हीरे-मोती से भगवान की आंखें बनी हैं और पूरा शृंगार किया गया है। मूर्ति के गले में सोने की ग्यारह मालाएं और भगवान को कीमती पीले वस्त्र पहनाए गए हैं। इसके चार हाथ हैं, जिनमें से एक में शंख, दूसरे में सुदर्शन चक्र, तीसरे में गदा और चौथे में कमल का फूल शोभायमान है। मूर्ति में रणछोड़ जी के सिर पर सोने का मुकुट सजा है। मंदिर में आने वाले भक्त भगवान की परिक्रमा करते हैं और उन पर फूल और तुलसी दल अर्पित करते हैं। मंदिर की चौखटों पर चांदी के पत्तर मढ़े हुए हैं और छत से कीमती झाड़-फानूस लटक रहे हैं। एक तरफ  ऊपर की मंजिल पर जाने के लिए सीढि़यां हैं। सात मंजिल के इस मंदिर की पहली मंजिल पर अंबादेवी की मूर्ति स्थापित है।

कुल मिलाकर यह मंदिर एक सौ चालीस फुट ऊंचा है। रणछोड़जी के दर्शन के बाद मंदिर की परिक्रमा की जाती है। मान्यता है कि बिना इसके भगवान के दर्शन का पूरा फल प्राप्त नहीं होता। ये मंदिर दोहरी दीवारों से बना है। दोनों दीवारों के बीच एक पतला सा रास्ता या गलियारा छोड़ा गया है।

इसी रास्ते से परिक्रमा की जाती है। रणछोड़जी के मंदिर के सामने एक बहुत लंबा-चौड़ा 100 फुट ऊंचा जगमोहन है, जिसकी पांच मंजिलें है और उसमें 60 खंभे हैं। इसकी भी दो दीवारों के बीच गलियारा है, जहां से रणछोड़जी के बाद इसकी परिक्रमा की जाती है। मंदिर में लोगों की प्रगाढ़ आस्था है।

क्यों कहलाते हैं श्री कृष्ण रणछोड़जी

कहते हैं कि हर प्रकार से सक्षम भगवान कृष्ण अपने शत्रु का मुकाबला करने की बजाय मैदान छोड़ कर भाग गए। दरअसल जब मगध के शासक जरासंध ने कृष्ण को युद्ध के लिए ललकारा, तो कृष्ण जानते थे कि मथुरा में उसका मुकाबला करने में समझदारी नहीं है। इसीलिए उन्होंने न सिर्फ स्वयं, बल्कि भाई बलराम और समस्त प्रजाजनों सहित उसे छोड़ देने का निर्णय किया। इसके बाद वे सब द्वारका की ओर बढ़ने लगे।

मैदान से भागते हुए कृष्ण को देख कर जरासंध ने उन्हें रणछोड़ नाम दिया, जो रण यानी युद्ध का मैदान छोड़कर भाग रहे हैं। बहुत दूर तक चलने के बाद कृष्ण और बलराम आराम करने के लिए जिस पर्वत पर हमेशा वर्षा होती रहती थी, पर रुक गए। जरासंध ने तब अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे इस पर्वत को आग लगा दें। तब 44 फुट ऊंचे स्थान से कूद कर भगवान ने द्वारका में प्रवेश कर नई नगरी बनाई और उस से पहले का उनका स्थान रणछोड़ जी महाराज के नाम से जाना गया, जहां इस मंदिर का निर्माण हुआ है।