सरकारी हिस्सेदारी बेचने की नौबत

भारत सरकार देश के कई हवाई अड्डों के निजीकरण पर विचार कर रही है। भारत पेट्रोलियम लिमिटेड, जीवन बीमा निगम, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड और इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म कॉरपोरेशन आदि सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों में भी सरकार अपनी हिस्सेदारी बेचने पर विचार कर रही है। पंजाब एंड सिंध बैंक, यूको बैंक, आईडीबीआई बैंक और बैंक ऑफ  महाराष्ट्र सरीखे बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी विचाराधीन है। करीब 8.4 लाख करोड़ रुपए के कर्ज का पुनर्गठन किया जा सकता है। सरकार अपनी हिस्सेदारियां बेचकर धन जुटाना चाह रही है, ताकि अर्थव्यवस्था को गति देने के प्रयास किए जा सकें। सिर्फ  कोरोना महामारी और लॉकडाउन से ही अर्थव्यवस्था नहीं डूबी है। बीते चार सालों के दौरान नोटबंदी और जीएसटी के संक्रमण काल ने भी हमारी अर्थव्यवस्था को रसातल तक पहुंचाया है। बेशक एक वर्ग हमारी दलीलों से सहमत नहीं होगा, लेकिन यह तो यथार्थ है कि फिलहाल हमारी अर्थव्यवस्था की स्थिति नकारात्मक है। अब सवाल यह है कि क्या सरकार की हिस्सेदारी बेचकर अर्थव्यवस्था को गति दी जा सकती है? क्या बाजार में आम आदमी की खरीदने की क्षमता को बहाल किया जा सकता है? ऐसे कितने सार्वजनिक उपक्रम हैं, जो ‘नवरत्न’ श्रेणी के हैं और अर्थव्यवस्था के मौजूदा दौर में जिन्हें बेचने पर सरकार के भीतर विचार किया जा रहा है? भारत सरकार को संसद के जरिए देश को यह स्पष्ट करना चाहिए कि सरकार की हिस्सेदारियां बेचने की नौबत क्यों आई है?

क्या सरकार ऐसा करने जा रही है या किसी नीतिगत निर्णय के तहत कुछ हिस्सेदारी बेचना उचित समझा गया हो? क्या लॉकडाउन खुलने और पाबंदियां हटा लेने के बाद भी औद्योगिक उत्पादन और निर्यात पटरी पर आने नहीं लगे हैं? सरकार को यह खुलासा भी करना चाहिए और उद्योगों के लिए भरोसे की नई नीति का ऐलान करना चाहिए। बैंकों के करीब 15 लाख करोड़ रुपए रिजर्व बैंक में जमा हैं। उस पर बहुत कम ब्याज मिल रहा है और उस पूंजी का उपयोग उद्योगों के पुनरोत्थान में भी नहीं हो पा रहा है, लिहाजा ऐसी नीति की दरकार है कि छोटे उद्योग बैंकों से कर्ज लेने की तरफ  बढ़ें और बैंक भी आसानी से कर्ज मुहैया कराएं। गलत या फंसे हुए कर्ज कुछ ही होते हैं, जो बैंकों में भीतरी घोटालों की पैदाइश होते हैं। वर्ष 2019-20 में करीब 1.85 लाख करोड़ रुपए के बैंक फ्रॉड सामने आए हैं। दरअसल वे ही एनपीए का बोझ बढ़ाते हैं और घुन की तरह अर्थव्यवस्था को नष्ट करते रहे हैं। सवाल है कि आखिर छोटे और मझोले उद्योग भी बैंकों से कर्ज लेने में क्यों हिचक रहे हैं? क्योंकि बाजार और मांग ठप्प पड़े हैं, एक-दूसरे राज्यों में आना-जाना बंद है, ऑर्डर नहीं हैं, क्योंकि मांग और आपूर्ति नहीं है। सबका नतीजा एक ही है-उत्पादन नगण्य है। लिहाजा सरकार की हिस्सेदारियां बेचकर स्थायी मांग पैदा नहीं होगी, लोगों के बैंक खातों में कुछ नकदी डाल कर भी मांग पैदा होने वाली नहीं है। सरकार को कुछ ठोस उपाय करने होंगे। भारत की इतनी व्यापक अर्थव्यवस्था है कि अगले वित्तीय वर्ष तक आर्थिक विकास दर 4-5 फीसदी तक पहुंच सकती है।

वैश्विक रेटिंग एजेंसियों के भी यही आकलन हैं। यदि भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाना है, तो हिस्सेदारियां बेचना ही पर्याप्त नहीं होगा। मुफ्त गैस सिलेंडर देना या  नकदी देने के बजाय युवाओं को नौकरी दे सरकार। प्रधानमंत्री ने बीते दिनों बिहार की एक घटना देखी होगी, जब कुछ युवा मुख्यमंत्री आवास तक जाना चाहते थे और नौकरियों के लिए परीक्षा के परिणाम घोषित करने के एवज में अपना गुर्दा तक देने को तैयार थे। सोचिए यह कितनी दारुण स्थिति है? खबरें आती रहती हैं कि रेलवे की परीक्षा पास कर ली गई, लेकिन अभी तक नियुक्ति-पत्र नहीं मिला। आखिर क्यों…? कब तक मिलेगा? प्रधानमंत्री दखल दें कि ऐसी अव्यवस्था क्यों है? नौकरी चाहने वाले ऐसे युवाओं की संख्या लाखों में होगी। घोषित करने के बावजूद सरकारी नौकरी ही दुर्लभ क्यों लग रही है? सुझाव यह भी है कि सरकार देश की निजी कंपनियों को कहे कि वे नौकरियां दें। जो कंपनी सबसे अधिक नौकरियां देगी, उसे ही ज्यादा लोन दिए जाएंगे। रेलवे या किसी अन्य विभाग में सरकार चाहे तो अनुबंध पर नौकरियां दे, लेकिन भर्तियां शुरू तो होनी चाहिए। बेरोजगारी की दर बढ़ती रहेगी, तो अर्थव्यवस्था कैसे सुधर सकती है? बेशक हमारी आवाज धीमी है, लेकिन लोकतंत्र में यही आवाजें मायने रखती हैं।