गीता रहस्य

यह मन की स्थिरता तब सिद्ध होती है जब जीव नित्य यज्ञ, हवन में बैठकर वेदमंत्रों से ईश्वर की स्तुति (गुणगान) करता है। तब वह परमेश्वर की महिमा, गुणों, सामर्थ्य, शक्ति, परमेश्वर के कर्म, स्वभाव को जान जाता है और यह समझ जाता है कि ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई भी मेरी इस लोक एवं परलोक में रक्षा करने में समर्थ नहीं है। तब वह जीव सामवेद मंत्र 277 के अनुसार ईश्वर का सच्चा सखा बन जाता है और उसका मन ईश्वर में लग जाता है…

गतांक से आगे…

सामवेद मंत्र में कहा कि यदि मनुष्य परमात्मा का ध्यान करता है और फिर आत्मसमर्पण कर देता है, तो वह मोक्ष का आनंद भोगता है। ‘मन्मनाः भव’ का अर्थ है कि प्रत्येक मनुष्य वेदों को सुनकर अपने गृहस्थ  आदि आश्रम के शुभ कर्मों का ज्ञान प्राप्त करके उन कर्मों को करते हुए ही नित्य यज्ञ एवं योग साधना में बैठकर अपने मन को परमेश्वर के स्वरूप में स्थिर करना। यह मन की स्थिरता तब सिद्ध होती है जब जीव नित्य यज्ञ, हवन में बैठकर वेदमंत्रों से ईश्वर की स्तुति (गुणगान) करता है। तब वह परमेश्वर की महिमा, गुणों, सामर्थ्य, शक्ति, परमेश्वर के कर्म, स्वभाव को जान जाता है और यह समझ जाता है कि ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई भी मेरी इस लोक एवं परलोक में रक्षा करने में समर्थ नहीं है। तब वह जीव सामवेद मंत्र 277 के अनुसार ईश्वर का सच्चा सखा बन जाता है और उसका मन ईश्वर में लग जाता है।  भाव यह है कि केवल गीता में लिखे इस शब्द ‘मन्मना भव’ का ऐसा अर्थ करके कि प्रेमपूर्वक हम अपने मन  को ईश्वर में स्थिर कर दें, तो यह केवल पढ़ा-सुना, रटा ज्ञान होगा और इससे  मन स्थिर नहीं होगा। मन स्थिर करना अष्टांग योग की छठी मंजिल धारणा है।

धारणा सिद्ध होने पर ही मन ईश्वर में लगता है। धारणा सिद्धि के लिए ऊपर कही साधना अर्थात विद्वान आचार्य से वेदों को सुनकर शुभ कर्म करना, आचार्य के संरक्षण में ईश्वर यज्ञ में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना के मंत्रों से आहुति डालना, दीक्षित होकर ईश्वर का नाम जपना, इस प्रकार साधना द्वारा इंद्रियों का संयम, धर्माचरण आदि करना तथा योगाभ्यास आदि साधना से मन ईश्वर में स्थिर होता है। दूसरा शब्द है ‘मद्भक्त’ अर्थात मेरा भक्त बन। भज धातु से भक्ति शब्द निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है सेवा करना। ईश्वर की आज्ञा में रहना ही ईश्वर की महान पूजा है। भक्ति का स्वरूप भी पीछे के श्लोकों में कह दिया गया है। तीसरा शब्द है ‘मद्याजी’ मेरा यज्ञ करने वाला हो, यज्ञ देवपूजा संगतिकरण, दान को कहते हैं। यज्ञ को यास्क मुनि ने संसार का सबसे श्रेष्ठ कर्म कहा है। यजुर्वेद मंत्र 28/1 में ‘होतर्यज्ञ’ अर्थात यज्ञ करो। अतः हमें यज्ञ के अर्थ को समझकर श्रद्धायुक्त होकर यज्ञ करना चाहिए, जिससे परमेश्वर से प्रेम उत्पन्न होता है। चौथा शब्द है ‘माम नमस्कुरु’ ईश्वर को नमस्कार करने के लिए चारों वेदों में प्रेरणा दी है। कर लेता है।