अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा

कुल्लू दशहरा उत्सव में इस बार पहले जैसे दृश्य देखने को नहीं मिलेंगे। कोरोना काल के चलते कुल्लू दशहरा में न तो महिलाओं की नाटी और न ही सांस्कृतिक कार्यक्रम होंगे।  इस बार 25 से 31 अक्तूबर तक होने वाले अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव में अधिष्ठाता रघुनाथ जी की रथयात्रा सूक्ष्म तरीके से होगी। देव परंपरा निभाते हुए इस बार रथयात्रा में सिर्फ 200 लोग ही हिस्सा लेंगे। कोराना वायरस के कारण इस बार यह निर्णय लिया गया है। रथ यात्रा में भाग लेने वाले लोगों की कोरोना जांच को पहले सुनिश्चित किया जाएगा।

 इस सात दिवसीय उत्सव में भगवान रघुनाथ की भव्य रथयात्रा में सात देवी-देवताओं के निशान नहीं, बल्कि देवताओं के रथ ही शामिल होंगे। खराहल घाटी के आराध्य बिजली महादेव, राजपरिवार की दादी कही जाने वाली माता हिडिंबा, खोखण के आदि ब्रह्म, पीज के जमदग्नि ऋषि, रैला के लक्ष्मी नारायण, राजपरिवार की कुल देवी नग्गर की माता त्रिपुरा सुंदरी और ढालपुर के देवता बीरनाथ को सीमित संख्या में बजंतरियों, गुर, पुजारी, कारदार, हारियान सहित दशहरा उत्सव में भाग लेने की अनुमति प्रदान की गई है। कुल्लू का दशहरा पर्व परंपरा, रीति-रिवाज और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्व रखता है। जब पूरे भारत में विजयदशमी की समाप्ति होती है, उस दिन से कुल्लू घाटी में इस उत्सव का रंग और भी अधिक बढ़ने लगता है। यहां दशहरे पर अनेक रस्में निभाई जाती हैं। कुल्लू में दशहरा मनाने की परंपरा राजा जगत सिंह के समय से मानी जाती है। दशहरा उत्सव के मुख्यतः तीन भाग ठाकुर निकालना, मोहल्ला तथा लंका दहन हैं। इस उत्सव के आयोजन में देवी हिडिंबा की उपस्थिति अनिवार्य है। देवी हिडिंबा के बिना रघुनाथ जी की रथयात्रा नहीं निकाली जाती है।

दशहरे के आरंभ में सर्वप्रथम राजाओं के वंशजों द्वारा देवी हिडिंबा की पूजा-अर्चना की जाती है तथा राजमहल से रघुनाथ जी की सवारी रथ मैदान ढालपुर की ओर निकल पड़ती है। राजमहल से रथ मैदान तक की शोभा यात्रा का दृश्य अनुपम व मनमोहक होता है। इस स्थान पर जिले के विभिन्न भागों से आए देवी-देवता एकत्रित होते हैं। रघुनाथ जी की इस रथयात्रा को ठाकुर निकालना कहते हैं। रथयात्रा के साथ देवसंस्कृति, पारंपरिक वेशभूषा, वाद्य यंत्रों की ध्वनि, देवी-देवताओं में आस्था, श्रद्धा व उल्लास का एक अनूठा संगम होता है। मोहल्ला के नाम से प्रख्यात दशहरे के छठे दिन सभी देवी-देवता रघुनाथ जी के शिविर में शीश नवाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। इस दौरान देवी-देवता आपस में इस कद्र मिलते हैं कि मानो मानव को आपसी प्रेम का संदेश दे रहे हों। मोहल्ला के दिन रात्रि में रघुनाथ शिविर के सामने शक्ति पूजन किया जाता है।

दशहरा उत्सव के अंतिम दिन शिविर में से रघुनाथ जी की मूर्ति को निकालकर रथ में रखा जाता है तथा इस रथ को खींचकर मैदान के अंतिम छोर तक लाया जाता है। देवी-देवताओं की पालकियों के साथ ग्रामवासी वाद्य यंत्र बजाते हुए चलते हैं। ब्यास नदी के तट पर एकत्रित घास व लकडि़यों को आग लगाने के पश्चात पांच बलियां दी जाती हैं तथा रथ को पुनः खींचकर रथ मैदान तक लाया जाता है। इसी के साथ लंका दहन की समाप्ति हो जाती है तथा रघुनाथ जी की पालकी को वापस मंदिर लाया जाता है। देवी-देवता भी अपने-अपने गांव के लिए प्रस्थान करते हैं। ठाकुर निकलने से लंका दहन तक की अवधि में पर्यटकों के लिए एक विशेष आकर्षण रहता है।