क्या इसे ही क्रांति कहते हैं

सुरेश सेठ

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देश में आर्थिक क्रांति हो गई है, इसकी खबर सबको दे दी गई है। देश में समावेशी विकास हो रहा है अर्थात् इस बदले हुए ज़माने में शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं। इसका प्रचार ध्वनि प्रदूषण का खतरा पैदा करने के बावजूद सरकारी भोंपू बहुत खूबी से कर रहे हैं। भई, हमारी सरकार है। हमारे वोटों के बलबूते से बनी सरकार है। एक जन-कल्याणकारी राष्ट्र की सरकार है, ऐसा संविधान ने हमें बताया है। इसलिए क्यों न हम उसका विश्वास कर लें। फिर विश्व व्यापार संगठन के मंच से ट्रम्प महोदय और उनके धनपति सहयोगी भी तो चिल्लाने लगे कि भारत और चीन अब अल्पविकसित राष्ट्र नहीं, बल्कि विकसित राष्ट्र बन चुके हैं, फिर भी अपना व्यापार और विकास करते हुए वे विश्व व्यापार मंच से अल्पविकसित राष्ट्रों को मिलने वाली सब राहतें लिए जा रहे हैं।

 भई, बंद करो इनकी सब राहतें, इनको लम्बे-चौड़े अनुदान और आर्थिक मदद के स्रोत बंद करें। उन्होंने जो हमारे निर्यात पर कस्टम और टैक्स की ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी कर रखी हैं, इन्हें गिरा दो ताकि हम चचा सैम सुविधा से अपना फालतू माल भारत में बेच सकें। इनकी मंडियों को अपने घटिया और मशीनी सामान से भर सकें। उधर ब्रिटेन वासी परेशान हैं, भई इनको अपने लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति की सहायता से सफेद कॉलर वाले बाबू बनाने की दीक्षा देकर आए थे। ‘मेक इन इंडिया’ का अभियान तो इनका ठीक था क्योंकि इससे हमारी या चचा सैम की बेकारी पूंजी श्रम और उद्यमियों को ठिकाना मिल जाता। लेकिन यह अपने देश में स्वदेशी उत्पादन और निवेश की सहायता से ‘मेड इन इंडिया’ और कुशल भारत बना ‘स्टार्टअप इंडिया’ के सपने देखने लगे। इनकी बड़ी-बड़ी मंडियां और बेशुमार अतृप्त मांग अपने हाथ से निकल जाएगी।

 फिर हमारा बेकार, श्रम और पूंजी किस काम लगेगा? अभी पिछले दुर्दिन ही नहीं भूले, जब अपना अत्यधिक उत्पादन न बिकने की सूरत में उसे समुद्र में डुबो कर नष्ट कर देना पड़ता था ताकि वह मांग के मुकाबले अत्यधिक पूर्ति उत्पादन को घाटे का पैगाम न दे दे। लेकिन इसके बावजूद दुनिया के ये सर्व-सम्पन्न देश महामंदी से बच न सके। इसलिए ज़रूरत है कि हमारी मंडियां उनकी चरागाह बनी रहें। अब शुरू कर दिया है एक व्यापारिक युद्ध। चीन तरक्की के रास्ते पर इन्हीं विस्तारवादी नीतियों अड़ोसियों-पड़ोसियों की मंडियों पर कब्ज़ा कर रहा था, इसलिए उसके साथ व्यापार युद्ध के बिगुल बजने ही थे। अब क्यों न आटे के साथ घुन भी पिस जाए? जानते तो हो भटयन कि अब गरीब बस्तियां जीत कर उन्हें अपनी भौगोलिक अमलदारी और अपनी सल्तनत में मिलाने के युग चले गए। लेकिन अपना माल बेचना है तो उनकी व्यापारिक मंडियां बनीं रहनी चाहिए। चीन के साथ चचा सैम को पंजा लड़ाना ही था, इसलिए वहां तो ज़ोर-शोर से व्यापार युद्ध शुरू हो गया। लेकिन इसके साथ ही आटे के साथ घुन भी पिस गया है। इसलिए घोषणा हुई अंतरराष्ट्रीय दरबारों से कि केवल चीन ही नहीं, भारत भी विकसित राष्ट्र बन चुका है।