तिरंगा ऊंचा रहे हमारा

तिरंगा हिंदुस्तान की आन, बान, शान और पहचान है। असंख्य क्रांतिवीरों, देशभक्त नागरिकों और जांबाज सैनिकों ने आजादी से पहले और आजादी के बाद, तिरंगे के लिए ही, कुर्बानियां दीं। यह भारत का इतिहास है, जिसे कोई विस्मृत नहीं कर सकता और न ही खारिज कर सकता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर तिरंगे की गरिमा और सम्मान की व्याख्या की है और उसे कानून का रूप दिया है। तिरंगा महज कपड़े का एक टुकड़ा और तीन रंगों का मिश्रण नहीं है। तीन रंग हमारे भावों और संस्कारों की अभिव्यक्ति करते हैं। संविधान ने गणतांत्रिक भारत में एक ही राष्ट्रीय निशान, एक ही विधान और एक ही प्रधान की व्यवस्था की है और उसी के अनुसार प्रावधान किए गए हैं। इस संदर्भ में जनसंघ के संस्थापक नेता और देश की प्रथम नेहरू कैबिनेट में उद्योग-वाणिज्य  मंत्री रहे डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की याद ताजा हो जाती है, जिन्होंने इसी मुद्दे पर कश्मीर में बलिदान दिया था। उनकी मौत आज भी एक रहस्य है। बहरहाल भारत विविध राज्यों और संघीय ढांचे का राष्ट्र है। पुरानी राजशाही और रियासतें अब इतिहास और अतीत हो चुकी हैं। जम्मू-कश्मीर भी हिंदुस्तान का एक अंतरंग हिस्सा है, लिहाजा महबूबा मुफ्ती का अनुच्छेद 370 और 35-ए तथा कश्मीर के अपने झंडे पर प्रलाप करना बेमानी ही नहीं, देशद्रोह भी है।

अनुच्छेद 370 की बहाली की सियासी जिद पाले महबूबा ने हमारे प्रिय तिरंगे को खारिज करने का बयान दिया था। बेशक तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों-डा. फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला  और महबूबा-ने ‘गुपकर घोषणा’ के जरिए संकल्प लिया है कि वे जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35-ए की बहाली के लिए लड़ते रहेंगे, संघर्ष करेंगे। जब इस संदर्भ में फारूक ने चीन की आड़ लेने की बात कही थी, तो उस सियासी और निजी सोच की भी देश भर में भर्त्सना की गई थी। उसके बाद फारूक कमोबेश चीन पर चुप हैं। इस विषय पर हमने भी संपादकीय विश्लेषण किया था, लेकिन अनुच्छेद 370 के खोखले पक्षकारों ने राष्ट्रीय ध्वज को लेकर ऐसी कोई अपमानजनक टिप्पणी नहीं की है, जैसा महबूबा ने बयान दिया है। यह महबूबा की पुरानी सियासत रही है। वह लोकसभा सांसद भी रहीं, लेकिन भारत के प्रति उनकी निष्ठा संदिग्ध रही। महबूबा सोच के आधार पर भारत-विरोधी रही हैं। यही नहीं, उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय तक को धमकी दे दी थी कि यदि 370 और 35-ए के साथ कोई छेड़छाड़ की गई, तो कश्मीर में आग लग जाएगी। यह बयान देने के समय वह जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री थीं। अफसोस और विडंबनापूर्ण…! तब भी उनके खिलाफ  कोई कार्रवाई नहीं की गई, क्योंकि कश्मीरी हुकूमत में भाजपा भी बराबर की हिस्सेदार थी। उस दौर में महबूबा का यह बयान भी आया था कि कश्मीर में तिरंगा उठाने के लिए कोई हाथ तक नसीब नहीं होगा। बीती 26 अक्तूबर को वह ऐतिहासिक दिन था, जिस दिन 1947 में महाराजा हरिसिंह ने भारत गणराज्य में जम्मू-कश्मीर के विलय के समझौते पर हस्ताक्षर किए थे।

 उसी दिन कश्मीर में सैकड़ों हाथों ने, वाहनों पर तिरंगा उठा रखा था और नौजवानों ने मार्च भी निकाला। महबूबा की पार्टी पीडीपी के दफ्तर पर भी तिरंगा फहराया गया। श्रीनगर के लाल चौक पर भी तिरंगा सुशोभित करने की कोशिश की गई, लेकिन अनिष्ट की आशंका के मद्देनजर ऐसा नहीं किया गया। सुरक्षा बलों ने कुछ प्रदर्शनकारियों को हिरासत में भी लिया और बाद में रिहा कर दिया गया। मुद्दा ‘तिरंगा मार्च’ आयोजित करने पर टिप्पणी का नहीं है। बेशक जम्मू-कश्मीर का संविधान, झंडा, विधानसभा का कार्यकाल और कानून शेष भारत से अलग थे, क्योंकि विशेष दर्जा दिया गया था। हैरानी है कि ऐसे प्रस्ताव पर भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने 1954 में हस्ताक्षर किए थे, लेकिन विशेष दर्जा 1944 से लागू किया गया। इसी में मंशा निहित थी। बहरहाल अब संसद ने प्रस्ताव पारित कर अनुच्छेद 370 और 35-ए की व्यवस्था समाप्त कर दी है।

कमोबेश 2024 तक तो ‘विशेष दर्जे’ की बहाली संभव नहीं लगती, क्योंकि तब तक नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री रहेंगे और उनके गठबंधन के पक्ष में बहुमत का समर्थन है। हमें संविधान पीठ के फैसले का भी इंतजार है। महबूबा कश्मीर में अब भी जेहाद की सियासत कर रही हैं। नौकरशाही, अकादमिक वर्ग, राज्य पुलिस, आम कारोबारी, नौजवान और कश्मीरियों का एक तबका आज भी परोक्ष रूप से और मानस के स्तर पर जेहाद की जकड़ में है। आपत्तिजनक तो यह भी है, लेकिन जिस तिरंगे को हमेशा ऊंचा रखने के हम संकल्प करते रहे, उसका सार्वजनिक अपमान बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। कार्रवाई तो सरकार को करनी है, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या ऐसे लोग हिंदुस्तान में रहने देने चाहिए?