वह रहा सामने उगता हुआ ‘निशांत’

मौत के बाद लेखक को जी रहीं कविताएं और जिंदगी की कविताओं में लेखक की स्मृतियों से सांसें लेते सृजन की एक बेहतरीन प्रस्तुति है ‘मैं यहीं रहना चाहता हूं।’ सुरेश सेन निशांत अपनी जीवन यात्रा के बाद कविता का जीवन बढ़ा देते हैं, इसलिए ‘मरने के बाद’ में लिखते हैं, ‘यहां की गटर के पास, सूख रही नदी के तट पर। या मरते हुए किसान के पास, आंसू बहा लूंगा।’ अस्पताल में कविता कुछ यूं कहती है, ‘मैं अस्पताल में हूं वहां बसंत पेड़ों पर, मेरे न होने से हिचक से भरा-उतर रहा होगा पेड़ों पर। कवि ‘मृत्यु’ को निहारते हुए लिख देता है, ‘अंधेरे में भागते साये की तरह दिखी थी, कुछ विद्वानों को उसकी शक्ल। कुछ को दिखा था अंधेरा, कुछ ने गहरी नींद का नाम दिया उसे।’

कवि की दुनिया दिन के हर पहर का शृंगार करती है, ‘उजाले की किरण की हल्की सी पदचाप से, खुल गई हैं फूलों की आंखें।’ मेहनत की इंद्रधनुषी अंदाज में, ‘यहां एक आदमी का पसीना मिट्टी में खाद सा मिल गया’ या खेत के किनारे तपती कविता, ‘खेत हैं कि एक प्रदूषित नदी का किनारा,  जहां से गुजरते हुए आदमी का सांस लेना भी दुभर।’ मानवीय संवेदनाओं के मरुस्थल पर पानी बरसाते किसी मेघ की तरह निशांत अपने निशान छोड़ते हैं। कहीं पहाड़ के कटने पर, समाज की बहकती अपेक्षाओं और भटकते मंजर पर कविता अपना रास्ता बनाती, ऋतुओं में झांकती, अपने भाव में इनसान की पतझर का बयां करती है, ‘पत्ते ही नहीं गिरते पतझर में, हम भी गिरते हैं पत्तों सा, हम भी बुहारे जाएंगे घर के आंगन में- एक दिन।’ उधर बर्फ की मांद में बैठी कविता का शाश्वत विश्वास कह उठता है, ‘बर्फ की बुक्कल ओढ़े, खुश है मगर सेब का पेड़। उसकी मां ने ओढ़ा दिया है उसे जैसे, नई और गर्म ऊन का पट्टू।’ रचनाकार पहाड़ जैसे संघर्ष की कविता के बीच अपने दर्द की चट्टान ओढ़कर मुखातिब है।

वह उम्मीदों की बारिश में भीग कर, सृजन की उर्वरता से सराबोर मैदान सरीखा बार-बार अपने परिवेश में लौट आता है, ‘एक अपनत्व सा होता है, उस जगह जहां होता है हमारा घर। एक गंध सी होती है हमारे पुरखों की, जो बुलाती रहती है हमें।’ कवि अपने भीतर की क्रांतियां सिर पर बांध कर चलता है, फिर भी कविता परिवेश के प्रश्नों में कांटों की सूली को बयां करती है, ‘हम कभी भी हो सकते हैं दरबदर, अपने गांव, घर और इन खेतों से।’ निशांत हर कविता का कैनवास बड़ा कर देते हैं और ‘आग’ के भीतर तप कर उनकी बेहतरीन प्रस्तुति उन्हें राष्ट्रीय पैमाने का कवि बना देती है, ‘मुझे आग चाहिए थी जिसे सुलगाने के लिए, एक औरत झुकी थी चूल्हे पर।’ कुल उनसठ कविताओं से भरा संकलन ‘मैं यहां रहना चाहता हूं’ अपनी अदायगी का ऐसा संस्मरण है जो हमें हमेशा सुरेश सेन निशांत होने का अर्थ बताता रहेगा।

किताब के भीतर उनकी कविताएं अतुलनीय, आंदोलित व मार्मिक विषयों की सहजता में कवि को बंजारा बना देती हैं। बान, छांव, तुम्हें देखते हुए, निशान बाकी हैं और प्रवासी मजदूर में एक साथ सृजन के आधार की मुलाकात हर पाठक के मस्तिष्क से होगी।                                                                                                                                           -निर्मल असो