यह आजादी भी नहीं: अजय पाराशर, लेखक, धर्मशाला से हैं

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‘भागवान, इस करवा चौथ पर मैं तुम्हें जऱी वाली साड़ी और सोने की चूडिय़ां ज़रूर लाकर दूंगा। बस एक गरमा-गरम कप चाय पिला दो।’ हर साल की तरह पंडित जॉन अली इस बार भी अपनी पत्नी पर वायदों का जाल फैंकते हुए बोले। ‘अरे, जाओ! तुम्हें बड़े अच्छे से जानती हूं। शादी को तीस बरस हो गए। लेकिन मुझे हमारे दाम्पत्य जीवन और भारत के लोकतंत्र में कोई $फर्क नजऱ नहीं आता। दोनों वायदों पर ही पलते हैं। पहले करवा चौथ में क्या अलग था जो इकत्तीसवें में नहीं होगा। हर चुनाव में वायदों की बारिश में भीगने वाले मतदाता के पास तो फिर भी खत्यार होता है कि पिछली बार वह जिस पार्टी से बेवकूफ बना था, उसे छोड़ इस बार किसी और से मूर्ख बने। मेरे पास तो यह आज़ादी भी नहीं। मुझे तो मजबूरी में चांद देखने के बाद तुम्हारा काइयां चेहरा ही देखना पड़ेगा। पंडित जी की पत्नी कुनमुनाते हुए बोलीं। ‘भागवान! ऐसा मत कहो। काइयां नेताओं और सोई जनता के जन्म-जन्म के रिश्तों की तरह हम दोनों भी जन्मों के पवित्र रिश्ते में बंधे हुए हैं। चाह कर भी हम कांटे और गुलाब की तरह एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते। जैसे देश में पैदा होने वाला हर बच्चा सरकारों के कजऱ् का बोझ लिए जन्मता है, वैसे ही तुम्हारे घर में पैदा होने वाले नाती-पोते भी होम लोन के ढेर में पैदा होंगे। रही बात वायदों की तो वह नेता, प्रेमी या पति ही क्या, जो अपनी जनता, माशू$का या पत्नी को बेवकूफ न बना सके। न जाने क्यों लोग नेताओं को बदनाम करते हैं। एक बार नेता बनने पर उसका और जनता के बीच रिश्तों का वैसा ही सेतु बन जाता है जैसे पति-पत्नी के मध्य होता है।

जिस तरह पति-पत्नी में से एक की मृत्यु होने के बाद भी बच्चों के मा़र्फत यह रिश्ता ़कायम रहता है, उसी तरह नेता की मौत के बाद भी उसके वारिस जनता से यह रिश्ता जोड़े रखते हैं। जैसे हर प्रेमी अपनी प्रेमिका से चांद-तारे दिलाने के वायदे करता है, वैसे ही चुनाव में सभी नेता और पार्टियां जनता को रोज़गार के वायदों के समंदर में डुबोते रहते हैं। जनता हर बार उन्हीं वायदों के समंदर में डूब कर मर जाती है। जैसे इस बार बिहार में एक पार्टी दस लाख रोज़गार का वायदा कर रही है तो दूसरी 19 लाख का। सोहनी से मिलने के लिए मैं महिवाल की तरह बंजारा बनकर चूडियां बेचने तो निकल नहीं सकता, लेकिन चूडिय़ां दिलाने का वायदा तो कर ही सकता हूं। फिर जब वायदा ही करना है तो कांच की चूडियों का क्यों? सोने की क्यों नहीं? बड़बोलों की पार्टी की तरह बिहार में मु़फ्त कोरोना वैक्सीन ही तो बांटनी है। पहले अच्छे दिन और काला धन बांटा, अब वैक्सीन सही। चाहे राष्ट्रीय टीकाकरण के तहत दी जाने वाली हर वैक्सीन की तरह कोरोना वैक्सीन भी मु़फ्त ही दी जानी हो, लेकिन झूठ बोलने में क्या जाता है? सोए हुए लोग अगर एक बार फिर बेवकू़फ  बन गए तो क्या अगले चुनाव में वोट डालने न जाएंगे? देखो, चारा चोर के बेटे को सुनने के लिए कितनी भीड़ इकट्ठा हो रही है। सत्ता मिलने पर चाहे वह बाप से दो हाथ आगे बढक़र उनके दुधारू ही चुराना क्यों न शुरू कर दे?’ यह जानते हुए कि बतोले बाबा की तरह पंडित जी से बातों में जीतना मुश्किल है, उनकी पत्नी चाय बनाने के लिए चुपचाप रसोई की तऱफ  चल दीं।