अन्नदाता की दिल्ली दूर

आंदोलन, सत्याग्रह और भूख हड़ताल राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की  विरासत है, लेकिन अराजकता, उग्रता और कुछ हिंसक व्यवहार उनकी देन नहीं है। अहिंसा के पुजारी ने सर्वशक्तिमान ब्रिटिश हुकूमत को हिला कर रख दिया था। अंततः उसे भारत छोड़ कर जाना पड़ा। आज तो हमारी चुनी हुई सरकार देश में है, लिहाजा उसके खिलाफ  आक्रामकता के मायने क्या हैं? क्या सरकारें ऐसे दबावों में कमजोर हुआ करती हैं? बेशक केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ  किसानों का आंदोलन उनका संवैधानिक मौलिक अधिकार है। संविधान ने ऐसे ही अधिकार देश के आम आदमी को भी दिए हैं, लिहाजा आंदोलन की आड़ में जिद, निरंकुशता और राजनीतिक पूर्वाग्रह बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं हैं। किसान आंदोलित और आशंकित हैं कि उनके गले में फांसी का फंदा डाल दिया गया है। ये कानून उन्हें बर्बाद कर सकते हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और मंडियों की व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। बिजली को लेकर जो संशोधन किए गए हैं, सरकार उन्हें वापस ले और किसानों को मुफ्त बिजली मुहैया कराई जाए। पराली जलाने के कारण जो किसान गिरफ्तार किए गए हैं, उन्हें रिहा किया जाए। दरअसल सबसे अहम मुद्दा यह है कि किसानों को उनकी फसलों की वाजिब कीमत जरूर मिले।

 उनकी शिकायत है कि अब भी गेहूं, धान, मक्का और गन्ना आदि घोषित एमएसपी से बहुत कम दामों पर बेचने पड़ रहे हैं। यकीनन किसानों की समस्याएं और उनके सवाल गंभीर हैं, लेकिन समाधान तो दोतरफा संवाद में ही निहित है। संवाद तो चीन और पाकिस्तान सरीखे दुश्मन देशों से भी करना पड़ रहा है। किसान तो इस देश के नागरिक हैं, लेकिन हजारों-लाखों किसान एक साथ केंद्र सरकार से संवाद नहीं कर सकते। यही जिद अराजकता और सियासत है। सवाल है कि अधिकतर पंजाब के किसान और कुछ हरियाणा के किसान ही उग्र होकर सड़कों पर क्यों हैं? इन दोनों राज्यों के किसान तो अपेक्षाकृत संपन्न हैं और उनकी फसलें तो अधिकतर सरकार ही खरीद लेती है। इन राज्यों से अलग उप्र, मप्र, राजस्थान, पूर्व और पश्चिम, दक्षिण तथा पूर्वोत्तर के किसान आंदोलित क्यों नहीं हैं? अथवा कानूनों पर उनकी उग्र प्रतिक्रियाएं क्यों नहीं हैं? मौजूदा आंदोलन में 32 संगठन जुड़े हैं, जो वाममोर्चा, कांग्रेस और अकाली दल समर्थित हैं। वे बुनियादी तौर पर प्रधानमंत्री मोदी और एनडीए सरकार के विरोधी हैं। क्या ऐसे आंदोलन को न्यायसंगत माना जा सकता है? चूंकि आज भी हम कोरोना वैश्विक महामारी की चपेट में हैं। दिल्ली में हररोज 5-6 हजार से ज्यादा संक्रमित मरीज सामने आ रहे हैं। हररोज करीब 100 मौतें हो रही हैं। ऐसे संक्रामक माहौल में आंदोलित किसानों की जो भीड़ राजधानी दिल्ली में प्रवेश करने पर आमादा दिख रही है, क्या वे उसके फलितार्थ को नहीं जानते? क्या यह भी एहसास नहीं है कि कितने लोग कोरोना से संक्रमित हो सकते हैं और कितनों की अकाल मौत भी हो सकती है? कोरोना महामारी कोई मजाक नहीं है, जिसे हवा में उड़ा दिया जाए। यह भयावह यथार्थ है और किसान भाइयों को संजीदगी से समझना चाहिए। किसानों की भीड़ पर पानी की बौछारें मारी गईं, लाठीचार्ज करना पड़ा, आंसू गैस के गोले दागने पड़े और भारी पत्थर लगाकर, गहरे गड्ढे खोद कर आंदोलनकारियों को रोकना पड़ा।

 पुलिस और बीएसएफ  वाले भी भारतीय हैं। उनमें भी असंख्य सुरक्षाकर्मी किसान के बेटे होंगे। यह कानून-व्यवस्था इसलिए भी विवशता है, क्योंकि किसानों के लिए अभी दिल्ली दूर है। राजधानी के अन्य करोड़ों लोगों को भी परेशान नहीं किया जा सकता। यातायात और सामान्य जीवन पर विराम नहीं लगाया जा सकता। बेशक किसान इस देश के ‘अन्नदाता’ हैं। जब से एमएसपी की व्यवस्था लागू हुई है, औसतन 4-5 फीसदी किसानों की फसलें ही तय कीमत पर बिकती रही हैं। मंडी में जाते ही किसान की फसल के दाम क्यों घटने लगते हैं, यह दुष्चक्र आज तक किसान समझ नहीं पाया है। यदि सरकार उस दुष्चक्र से मुक्त होने का अवसर दे रही है, तो किसानों को पूर्वाग्रह के बिना ही उस अवसर को ग्रहण करना चाहिए। दरअसल हम भी पक्षधर रहे हैं कि एमएसपी को कानूनी प्रावधानों से जोड़ा जाए, ताकि कम कीमत देना भी ‘आपराधिक’ माना जाए और उसकी सजा मिल सके। यदि प्रधानमंत्री समेत रक्षा मंत्री और कृषि मंत्री किसानों को सार्वजनिक भरोसा देते रहे हैं कि एमएसपी और मंडियों की व्यवस्था समाप्त नहीं होगी। किसानों के दिन बदलेंगे और आर्थिक स्थिति भी बेहतर होगी, तो क्या कारण है कि उन भरोसों पर विश्वास न किया जाए और उग्र होकर सड़कों पर उतरा जाए? बेहतर यही होगा कि किसानों के कुछ प्रतिनिधि सरकार से संवाद करें और आंदोलन की जिद छोड़ें। वही किसान और देशहित में होगा।