आयोजनों का नाक

सवाल नाक का है और कोरोना काल में खुद की जिम्मेदारियों का भी। पिछले करीब नौ महीनों की कसरतों में सरकारों की कारगुजारी अब जिस मोड़ पर खड़ी है वहां कसूरवार आंकड़ों की वजह भी वही है। निर्देश अब बहक-भटक कर वास्तविक स्थिति का मुआयना कर रहे हैं, तो हर तरह के आयोजनों की संख्या में निरंतर कटौतियां करने की मजबूरी में राज्य सरकारें करें भी तो क्या। यहां सत्ताओं के दो नाक हैं। एक नाक बिहार के चुनाव में देखा गया तो दूसरा कोरोना की गिरफ्त में समाज को निर्देशित कर रहा है। यानी हम करें तो एक परिपाटी बने, तुम करो तो अनुशासित सहपाठी बनो। सरेआम चुनावी जनसभाओं में जो भीड़ देखी गई या किसी भी राजनीतिक समारोह का उत्साह जिस तरह करवटें बदलता है, उस पर अंकुश न लगा तो केवल समाज के भीतर रेखांकित खामियां चुनने से भी फर्ज अधूरा रहेगा। अब तो फर्ज के चौखट पर राज्यों को ही तय करना है कि हुक्म के कितने चाबुक उठाए जाएं, लिहाजा खेल, मनोरंजन, सांस्कृतिक व पारिवारिक समारोहों में संख्या सौ से दो सौ रखी जाए या पाबंदियों की जिरह में किसी भी तरह की रोक में भविष्य सुरक्षित रखा जाए। जो भी हो अब कोरोना रोकथाम एक गेंद की तरह पाले बदल रही है और जहां जिम्मेदारियों के खेल का अंतिम पड़ाव जनता ही है। परीक्षाओं और असफलताओं के सारे मुहाने पहले से खतरनाक, लेकिन अगर किसी को जीतना है तो राजनीति हम सब पर भारी है। अब एक तमाशा जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में जारी है।

वहां स्थानीय यानी जिला विकास परिषदों के चुनावों में राजनीति खिल खिलाएगी और फिर जश्न की गलियों में कोरोना का स्वागत होगा। हिमाचल में भी स्थानीय निकायों के चुनाव का बिगुल बज चुका है। यहां भी वक्त यह भूल जाएगा कि उसका मुकाबला कोविड से है तथा राजनीतिक जीत-हार के कयास में सारे सियासी सामर्थ्य का हिसाब-किताब होता रहेगा। जाहिर तौर पर कोविड खतरों के बीच सरकारों के पास इतनी क्षमता व आपदा अधिकार हैं कि वे जितने चाहें चाबुक उठा लें, लेकिन बार-बार लौटती स्थिति के कारण इस युद्ध के बीच बगावती सुर बढ़ रहे हैं। उदाहरण के लिए हिमाचल में नाइट कर्फ्यू की अनिवार्यता में कुछ ऐसे फासले पैदा हो गए, जिन्हें जनता नापसंद कर रही है। बेशक सामाजिक व्यवहार को सुधारने के लिए सख्ती की जरूरत समझी जा सकती है, लेकिन प्रश्नों की परछाइयों को वीरान कर देने से तारीफ नहीं मिल सकती। नाइट कर्फ्यू ने प्रत्यक्ष में भले ही एक भलमनसाहत भरा संदेश दिया हो, लेकिन परोक्ष में खनकते खालीपन ने कारवां समेट दिया। यह कारवां अनलॉक के विभिन्न चरणों से निकल कर पहुंचा, लेकिन नाइट कर्फ्यू के एक सन्नाटे से सामान्य महसूस करने की वजह भी समेट ली। सुशासन को भीतरी और बाहरी दरवाजों से झांकने के बजाय यह आत्मनिरीक्षण करना होगा कि इन नौ महीनों के कोरोना काल से कैसे गुजरे और आइंदा उस अनुभव की डगर पर कैसे चलें।

बेशक ये नौ महीने नागरिक बलिदान के कई पलों की इबारत है, लेकिन आगे भी गहन अंधेरों की वकालत होगी तो जनता का आत्मबल हारेगा। नाइट कर्फ्यू ने आत्मबल पर चोट की है, क्योंकि प्रशासनिक समयसारिणी ने कई आर्थिक टापू व तंबू उखाड़े हैं। हिमाचल के रेहड़ी-फड़ी या ढाबे वालों की दुनिया अगर सड़क के किनारे चलती है, तो शाम से रात तक की पारी में मेहनत और रोटी का रिश्ता कामयाबी चुनता है। कोरोना काल में कामयाबी के अर्थ बदल गए और अब इसे केवल अपने कारोबार की सांस बचाने के अभिप्राय में देखा जाता है। रात्रि कर्फ्यू इन्हीं सांसों को रोक रहा है, जबकि दूसरी ओर केंद्र के पास भी अब कोई स्पष्ट निर्देश नहीं बचे हैं। हिमाचल के परिप्रेक्ष्य में अगर दबाव है, तो अब तक चिकित्सकीय अभ्यास अपनी परिपक्वता और विश्वसनीयता दर्ज कर सकता था, लेकिन हम यह कैसे भूलें कि उच्च अदालत को पूछना पड़ रहा है कि कोविड केंद्रों में ऑक्सीजन की सही आपूर्ति कैसे होगी।