भक्तराज धु्रव

गतांक से आगे…

तब धु्रव ने कहा, पितामह! मुझे ईश्वर की गोद में बैठना है, किंतु मुझे उसका मार्ग नहीं पता। देवर्षि तो सब जानते ही थे, ये सुनकर उन्होंने धु्रव को ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ ये अमोघ मंत्र दिया और कहा इसी के सहारे तुम अवश्य ईश्वर को प्राप्त करोगे। अब तो धु्रव को किसी और चीज का ध्यान नहीं रहा। उसने निरंतर ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस मंत्र का जाप करना आरंभ कर दिया। श्रीहरि के दर्शनों की इच्छा में वो खाना-पीना सब भूल गया। उसने केवल वायु पर रह कर एक पैर पर खड़े रह कर तपस्या आरंभ की और फिर वायु का भी त्याग कर दिया। बड़े-बड़े सिद्ध ऋषि जैसी कठोर तपस्या न  कर सकते थे, उससे भी घोर तपस्या एक पांच वर्ष के बालक को करते देख स्वयं देवता तक द्रवित हो गए। उन्होंने स्वयं श्रीहरि से प्रार्थना की कि वे धु्रव को दर्शन दें। भगवान श्रीहरि केवल भावना के भूखे हैं। उनका जो भक्त सच्चे हृदय से उन्हें पुकारता है, वे चले आते हैं। फिर तो उस नन्हे धु्रव ने 6 मास तक ऐसी कठोर साधना की जिसका कोई अन्य उदाहरण नहीं दिया जा सकता।

जब श्रीहरि ने देखा कि धु्रव के मन में उनके अतिरिक्त और कोई भावना बची ही नहीं है, तब अंततः उन्होंने धु्रव को दर्शन दिए। तपस्या करते हुए अचानक धु्रव के हृदय से श्रीहरि का लोप हो गया। ये जानकर जब धु्रव ने घबरा कर अपने नेत्र खोले तो उसे सामने स्वयं श्रीहरि दिखे। उनका दिव्य रूप देख कर धु्रव सुध-बुध खो बैठा और निरंतर उनकी ओर देखने लगा। उसकी वाणी अवरुद्ध हो गई और नेत्रों से निरंतर अश्रुधारा बहने लगी। तब श्रीहरि ने स्वयं आगे बढ़ कर धु्रव को अपने गोद में उठा लिया। धु्रव की कामना पूर्ण हुई। बड़े-बड़े सिद्ध मुनि भी जिन श्रीहरि के दर्शन अनंत जन्मों में भी प्राप्त नहीं कर सकते, धु्रव उनकी गोद में बैठा था। तब श्रीहरि ने अपने शंख से धु्रव के कंठ को छुआ जिससे उसकी अवरुद्ध वाणी ठीक हो गई और उसने 12 पवित्र श्लोकों से श्रीहरि की स्तुति की।

उस स्तुति को धु्रव स्तुति के नाम से जाना गया। श्रीहरि ने उससे वरदान मांगने को कहा, तो धु्रव ने कहा कि अब उसकी कोई और इच्छा नहीं है। तब श्रीहरि ने कहा कि जिस मंत्र का धु्रव ने जाप किया है आज से वही मंत्र उनके सान्निध्य का सबसे सरल मार्ग होगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने धु्रव को अपने समीप एक लोक भी प्रदान किया जिसका प्रलय में भी नाश नहीं होता। धु्रव के नाम पर ही उस लोक का नाम धु्रवलोक पड़ा। जब धु्रव वापस लौटा तो उत्तानपाद और दोनों रानियों की प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा। उन्होंने धु्रव को राजा बनाया और स्वयं सुनीति और सुरुचि के साथ वानप्रस्थ को चले गए। धु्रव केवल 6 वर्ष की आयु में ही सम्राट बना और सहस्रों वर्षों तक धर्म पूर्वक राज्य किया। जब धु्रव ने निर्वाण लेने का निर्णय किया, तो स्वयं विष्णुलोक से एक विमान उन्हें लेने आया।

इसके बाद वो इस लोक को त्याग कर वैकुंठ के निकट अटल धु्रवलोक में चले गए। वही लोक आज भी धु्रव तारे के रूप में स्थित है। धु्रव के बाद उनके पुत्र उत्कल राजा बनें, किंतु वे भी अपने पिता की भांति वैरागी पुरुष थे। इसी कारण उन्होंने राज्य का त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया। तब उनके छोटे भाई और धु्रव के छोटे पुत्र वत्सर सम्राट बनें। उनके वंश का अनंत विस्तार हुआ।