जानें भैरव जी की साधना के नियम

सिद्ध भैरवतंत्र, मायिक भैरवतंत्र, कंकाल भैरवतंत्र, कालाग्नि भैरवतंत्र, शक्ति भैरवतंत्र, योगिनी भैरवतंत्र, महाभैरवतंत्र तथा भैरवनाथ भैरवतंत्र, ये आठ भैरवतंत्र इस समय अति दुर्लभ हैं। इनमें वर्णित विविध भैरव रूपों के पटल, पद्धति, कवच, सहस्रनाम स्तोत्र, स्तवराज, हृदय तथा दीपदान विधि कहीं-कहीं मिलते हैं। ये सब शिवोक्त हैं। तंत्रलोक में वर्णन है कि असितांग आदि अष्ट भैरवों के आठ-आठ तंत्र और इनके अपने-अपने पंचांग भी दुष्प्राप्य हैं। मेरुतंत्र प्रकाश में केवल भैरवोपासना का ही श्रीमहाकाल भैरवजी ने वर्णन किया है…

-गतांक से आगे…

श्री भैरवनाथ सिद्धि साधना

जिस प्रकार चौंसठ तंत्रों में ‘यामलाष्टक’ तथा ‘बहुरूपाष्टक’ इत्यादि हैं, उसी प्रकार ‘भैरवाष्टक’ भी अत्यंत प्रसिद्ध है, यथा ः

सिद्धभैरवतंत्रं च मायिकं भैरवं तथा।

कंकालभैरवतंत्रं च कालाग्न्याख्यं च भैरवम्।।

शक्तिभैरवतंत्रं च योगिनीभैरवं तथा।

महाभैरवतंत्रं च तथा भैरववाथकम्।।

सिद्ध भैरवतंत्र, मायिक भैरवतंत्र, कंकाल भैरवतंत्र, कालाग्नि भैरवतंत्र, शक्ति भैरवतंत्र, योगिनी भैरवतंत्र, महाभैरवतंत्र तथा भैरवनाथ भैरवतंत्र, ये आठ भैरवतंत्र इस समय अति दुर्लभ हैं। इनमें वर्णित विविध भैरव रूपों के पटल, पद्धति, कवच, सहस्रनाम स्तोत्र, स्तवराज, हृदय तथा दीपदान विधि कहीं-कहीं मिलते हैं। ये सब शिवोक्त हैं। तंत्रलोक में वर्णन है कि असितांग आदि अष्ट भैरवों के आठ-आठ तंत्र और इनके अपने-अपने पंचांग भी दुष्प्राप्य हैं। मेरुतंत्र प्रकाश में केवल भैरवोपासना का ही श्रीमहाकाल भैरवजी ने वर्णन किया है। भैरव कल्पलता, भैरव पारिजात तथा बृहज्ज्योतिषार्णव के अंतर्गत बटुक भैरवोपासनाध्याय संकलित ग्रंथ है। इसमें केवल बटुक रूप की उपासना प्रक्रिया तथा श्रीबटुक भैरव के चार प्रकार के सहस्रनाम हैं। रुद्रयामल तंत्र का सहस्रनाम ठीक रुद्राष्टाध्यायी के पंचमाध्याय के समान है। स्वच्छंद तंत्र एवं मालिनीविजयोत्तर तंत्र श्रीभैरव तथा श्रीभैरवी के संवाद रूप में है। विज्ञानभैरव तंत्र अति विशाल रुद्रयामल तंत्र का सार है। श्रीशंकराचार्य कृत कालभैरवाष्टक स्तोत्र अत्यंत प्रसिद्ध है- काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे अर्थात हम काशीपुरी के अधीश्वर कालभैरव को भजते हैं।

 यह अति विशाल प्रकरण अधिकतर तंत्रों में वर्णित है। वैदिक मंत्र इस कलियुग में शीघ्र सिद्धिप्रद नहीं माने गए हैं, जैसे- निर्वीर्या श्रौतजातीया विषहीनोरगा इव। आगमोक्तविधानेन कलौ देवान् यजेत्सुधीः।। अर्थात कलियुग में विषहीन सर्प की तरह वैदिक मंत्र निःशक्ति होते हैं तथा शीघ्र फलप्रद नहीं होते। अतः विद्वान साधकों को चाहिए कि वे तंत्रोक्त विधान से देवाराधना करें। संभवतः इसीलिए महर्षियों ने वैदिक परंपरा के आधार पर संस्थापित आगमोक्त विधान निर्धारित किए। कलियुग में इन्हीं विधानों से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इन चतुर्विध पुरुषार्थ रूप फल की प्राप्ति होती है। ये विधान दो प्रकार के हैं- बहिर्याग और अंतर्याग। बहिर्याग में नित्य पंचोपचार पूजा तथा हवन-बलि आदि आवश्यक है। इसकी परिपक्व अवस्था प्राप्त होने पर अंतर्याग के क्रम का उदय होता है। बहिर्याग करते-करते साधकजन अंतर्याग के साम्राज्य में प्रवेश कर जाते हैं।