साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

डा. गंगा राम राजी

मो.-9418001224

साहित्य का माध्यम भाषा और भाषा संप्रेषण का माध्यम है जिसके द्वारा साहित्य की दिशा और दशा निर्धारित करते हुए साहित्यकार पाठकों तक पहुंचता है। आज देश सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संक्रमणों में भारी बदलाव से गुजर रहा है। हमारा प्रदेश भी इस बदलाव से अछूता नहीं रहा है। इसलिए साहित्य की भूमिका सब स्थानों में अहम बन जाती है।

आज तक जितने भी बदलाव संसार में आए हैं, बड़ी-बड़ी क्रांतियों से लेकर चाहे व सांस्कृतिक हों या सामाजिक सुधार की हों, साहित्य अपनी अहम भूमिका निभाता चला आया है। हिमाचल का लोकसाहित्य भी अपने अतीत और वर्तमान का दर्पण है। हिमाचल का लोकसाहित्य रचित साहित्य की अपेक्षा निरंतर परिवर्तनशील और समृद्ध होता रहा है। शिष्ट साहित्य तो लिखित और मुद्रित होकर स्थायी रूप ग्रहण कर लेता है और सदियों तक उसी रूप में यथावत रहता है। उसके मूल रूप में कोई परिवर्तन अथवा जोड़-तोड़ नहीं होता, परंतु लोकसाहित्य का स्वरूप मौखिक होता है, इसी कारण वाचकों, गायकों, अभिनेताओं, कलाकारों द्वारा जोड़-तोड़ की संभावना बनी रहती है क्योंकि इन्हें जब किसी लोक कथा का अंश या किसी लोकगीत की पंक्ति या लोक नाटक में किसी पात्र का संवाद भूल जाता है तो वे अपनी ओर से आशुवाक चातुर्य के कारण उसमें तुरंत कुछ जोड़ देता है। इसलिए लोकसाहित्य में निरंतर विकास की प्रक्रिया जारी रहती है। यहां प्रस्तुत प्रसंग में लोक की हिमाचली लोकसाहित्य से दूर होने की चर्चा है, उसी पर संक्षेप में कुछ कहना चाह रहा हूं।

लोक अपने अर्थ और स्वरूप में अत्यंत व्यापक है। उसकी जीवन संबंधी अनुभूतियों की सहज अभिव्यक्ति ही लोकसाहित्य है, जिसे हम हृदय की अनुभूतियों की स्वच्छंद अभिव्यक्ति भी कहते हैं। लोक की समस्त अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का कोष है लोकसाहित्य।

लोकसाहित्य विधा अनेकरूपा है यथा-लोक गीत, लोकगाथाएं, लोक कथाएं, लोक नाट्य, लोक संगीत, भाषिकलोरंजन-कहावतें, पहेलियां, चुटकलेबाजी इत्यादि। हिमाचली लोक अपनी इस वाचिक एवं अभिनय धरोहर को संभालने, हस्तांतरित करने के प्रति सदैव जागरूक व सृजनशील रहा है। हिमाचली लोक की वाचिक परंपरा में प्रचलित लोकसाहित्य हर दृष्टि से अनेक विशेषताएं लिए है।

इसके लोक गायन की विषय विविधता, संगीत माधुरी सुनते ही मन को विमोहित कर देती है। लोक कथा के सजते मंच शरद ऋतु की विशेषता माने जाते हैं। हर घर में सजते अंगीठे, चूल्हे, संगड़ी के गिर्द लोक कथा

की वाचिक परंपरा का श्रवण-कथन होता रहता है।

लोक नाट्यों यथा करियाला, बांठड़ा, भगत, हरणातर आदि के लोकमंच, हास्य-व्यंग्य विनोद के अनूठे मंचन शरद ऋतु में अलाव के अर्धावृत में पूरी रात लोकरंजन करते हैं। चरवाहों, गडरियों, गवालों के गायन से वनखंड, घाटियां, नदी तट निरंतर गूंजते रहते हैं। पणिहांदों, कुओं, जलस्रोतों पर लोक नारी के हास-परिहास नित्य सुनाई देते हैं।

अतः हिमाचली लोक अपनी लोकसाहित्य परंपरा की निरंतरता बनाए रखने में सदैव जागरूक रहा है। यही कारण है कि हमें थोड़े अंतराल के बाद नए लोकगीत, अद्भुत लोककथाएं, सामयिक स्वांग, अभिनय, ऋतुगायन के रूप मिला करते हैं। परंतु स्वतंत्रता के बाद शिक्षा, तकनीकी विकास, संचार-प्रसार, दृश्य-श्रव्य माध्यमों का प्रचलन होने से विरसा कलाएं, विरसा गायक आधुनिकता के वैकासिक प्रभाव से जुड़ते चले गए और हमारी लोकसाहित्य की वाचिक परंपरा के आगे धीरे-धीरे विराम लगने लगा।

अतः निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिमाचली लोक अपने साहित्य सृजन, विकास व प्रसार से दूर होता जा रहा है। आज उसे वे स्थितियां, अवसर प्राप्त नहीं हो रहे जहां उसका उत्स, विकास व प्रसार एवं हस्तांतरण अगली पीढि़यों को होता रहे।