सातवें घोड़े पर सवार

आज महान कथाकार एवं संपादक धर्मवीर भारती के कालजयी उपन्यास ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ की याद आ रही है। हालांकि उपन्यास और बिहार की राजनीति में कोई साम्य नहीं है, पटकथाएं भी भिन्न हैं, लेकिन ‘घोड़े’ का उपमान कुछ साझा हो सकता है। नीतीश कुमार सातवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं, जो एक राष्ट्रीय रिकॉर्ड है। बेशक सत्ता के घोड़े पर सवार नीतीश ने अपनी नई दौड़ शुरू कर दी है, लेकिन शुरुआत कुछ अच्छी नहीं हुई। भाजपा के हिस्से कुछ खटास महसूस हुई है, जिसकी जरूरत नहीं थी। न तो भाजपा और न ही सुशील कुमार मोदी को फिलहाल ऐसी खटास का मौका देना चाहिए था। भाजपा आलाकमान ने बिहार में अपने हिस्से का उपमुख्यमंत्री बदलने का निर्णय लिया, तो प्रतिक्रिया के ट्वीट में सुशील मोदी को यह नहीं लिखना चाहिए था-‘कार्यकर्ता का पद तो कोई नहीं छीन सकता।’ भाजपा सरीखे राजनीतिक दलों में कार्यकर्ताओं को हासिल भी क्या होता है? वे जनसभाओं की भीड़ होते हैं, चुनाव में बूथ तक मतदाताओं को आकर्षित करने का बेहद कठिन काम करते हैं अथवा नेताओं के अघोषित ‘चारणभाट’ होते हैं।

सुशील ने ये भूमिकाएं लंबे वक्त तक नहीं निभाईं, बल्कि 11 साल तक बिहार के उपमुख्यमंत्री रहते हुए दायित्व निभाए और सत्ता के लगभग शीर्ष पद का आनंद भी लिया। कोई भी पद एकाधिकार वाला नहीं होता। यह दृश्य नीतीश कुमार की रिकॉर्ड सातवीं सवारी के मौके पर कई संदेह और सवाल दे गया। बहरहाल अनमने भाव से नीतीश मुख्यमंत्री बने हैं। पहली बार भाजपा और जद-यू के विधायकों की संख्या में 31 का बड़ा फासला है। भाजपा 74 विधायकों के साथ बड़ी पार्टी है, लिहाजा सातवीं बार घोड़े पर सवार होने में झिझक और अनमना भाव स्वाभाविक था। लेकिन बिहार में एनडीए का स्वीकृत चेहरा नीतीश ही हैं। सुशील मोदी को भी उतनी व्यापक स्वीकृति हासिल नहीं है। हालांकि लालू, नीतीश और सुशील एक ही पीढ़ी के नेता हैं और जयप्रकाश नारायण की क्रांति की देन हैं। बहरहाल नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने हैं, तो अधिकतर चुनौतियां भी उन्हीं के सामने हैं। यकीनन रोजगार या नौकरियां और प्रवासी बिहारियों का पुनर्वास सबसे बड़े और संवेदनशील मुद्दे हैं। उन्हें लेकर ताकतवर विपक्ष भी मुखर रहेगा, यह तय है। बिहार में बेरोजगारी की दर करीब 10 फीसदी है। राष्ट्रीय औसत से करीब तीन फीसदी ज्यादा…! राज्य के करीब 30 फीसदी लोग गरीब हैं या गरीबी-रेखा के नीचे हैं। गरीबी की बिहार सरकार ने क्या परिभाषा तय कर रखी है, वह बिल्कुल तकनीकी विषय है, लेकिन खुद नीतीश कुमार कबूल कर चुके हैं कि ऐसा कुछ बेहद महत्त्वपूर्ण काम छूट गया है, जो जद-यू के हिस्से इतना कम जनादेश आया है, लिहाजा आगामी पांच सालों में प्राथमिकता के स्तर पर उन कामों की भरपाई करनी है। बिहार में बाढ़ की विभीषिका और जलजले को हम बीते तीन दशकों से देख रहे हैं।

बेशक वह प्राकृतिक आपदा नहीं है, जैसा कि नेतागण कहते रहे हैं। नेपाल की लापरवाही और हमारी सरकारों का निकम्मापन बाढ़ की त्रासदी के लिए जिम्मेदार है। हर साल बाढ़ आती है। समझ नहीं आता कि सरकारें उसका बंदोबस्त क्यों नहीं कर पातीं? जल-प्रवाह की दिशाएं मोड़ी जा सकती हैं। सरकार में इंजीनियर किसलिए मौजूद हैं? ब्रह्मपुत्र सरीखी विशाल नदियों पर बांध बनाकर पानी को रोका जाता है और उससे बिजली पैदा की जा रही है। तो कोशी जैसी नदी का पानी रोकना क्यों असंभव है? ऐसे सवाल बिहार की जनता में भी उभरते होंगे! न जाने क्यों बिहार में यह मुद्दा सबसे बड़ा सरोकार नहीं बना? हालांकि बिहारी चुनाव प्रचार के दौरान शिकायत के अंदाज में इसकी चर्चा जरूर करते रहे हैं। हमारे लिए रोजगार से अहं मुद्दा बाढ़ है, क्योंकि वह जीवन और मौत से सीधा जुड़ा है। इस दौर में भाजपा की वह राजनीति भी स्पष्ट हो सकती है, जिसके बूते 2025 में वह अकेली ही सरकार बनाने का बहुमत हासिल कर सके। बेशक अब भाजपा नीतीश और सुशील सरीखे नेताओं की छाया से छूटना चाहेगी, लिहाजा नई पीढ़ी का नया चेहरा सामने आ सकता है। भाजपा विधानमंडल के नेता तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी बिहार में नए जातीय समीकरणों की ओर स्पष्ट संकेत हैं। बहरहाल अभी तो ‘सूरज के सातवें घोड़े’ ने पहला दरवाजा खोला है। अभी छह दरवाजे शेष हैं, जो खोले जाने हैं। उनके पार की दुनिया क्या है, फिलहाल कोई नहीं जानता।