विवाद से परे है ईश्वर का अस्तित्व

भावनाएं न मिलने पर अच्छे और शिक्षित लोग भी खूंखार हो जाते हैं, जबकि सद्भावनाओं की छाया में पलने वाले अभावग्रस्त लोग भी स्वर्गीय सुख का रसास्वादन करते रहते हैं। यह मानव जीवन का स्वाभाविक नियम है…

-गतांक से आगे…

स्वार्थ एक सामाजिक दोष है और अपराध का कारण भी। इसलिए उसकी सभ्य और भावनाशहल समाज में निंदा की जाती है, पर यहां स्वार्थ की अपेक्षा भावुक्ता की मात्रा अधिक थी। भाव तो वह शक्ति है, जो स्वार्थ को भी क्षम्य कर देता है और नियमबद्धता का भी उल्लंघन कर देता है। इससे लगता है-भाव मनुष्य के जीवन में मूल आवश्यकता है। हम उस आवश्यकता के कारण की शोध कर पाएं तो जीवन विज्ञान के अदृश्य सत्य को खोज निकलने में सफल हो सकते है। मादा ने अनुचित पर ध्यान नहीं दिया। उसने बड़े बच्चे को भावनापूर्वग अपनी छाती से लगा लिया और उसे दूध पिलाने के लिए इनकार नहीं किया, जबकि अधिकार उसका नहीं छोटे बच्चे का ही था। दो-तीन दिन में ही बच्चा कमजोर पड़ने लगा। चिडि़याघर की निर्देशिका बेले जे बेनेशली के आदेश से बड़े बच्चे को वहां से निकालकर अलगकर दिया गया। अभी उसे अलग किए एक दिन ही हुआ था, वहां उसे अच्छी से अच्छी खुराक दी जा रही थी किंतु जीव मात्र की ऐसी अथिव्यक्तियां बताती है कि आत्मा की वास्तविक भूख, भौतिक संपत्ति और नदार्थ की उतनी अधिक नहीं होती जितनी कि उसे भावनाओं  की प्यास होती है। भावनाएं न मिलने पर अच्छे और शिक्षित लोग भी खूंखार हो जाते  हैं, जबकि सद्भावनाओं की छाया में पलने वाले अभावग्रस्त लोग भी स्वर्गीय सुख का रसास्वादन करते रहते हैं। बड़ा बच्चा बहुत कमजोर हो गया, जितनी देर उसका संरक्षक उसके साथ खेलता उतनी देर तो वह कुछ प्रसन्न दिखता, पर पीछे वह किसी  प्रकार की चेष्टा भी नहीं करता, चुपचाप बैठा रहता, उसकी आंखे लाल हो जातीं, मुंह उदास हो जाता। ेगिरते हुए स्वास्थ्य को देखकर उसे फिर से उसके माता-पिता के पास कर दिया गया। वह सबसे पहले अपनी मां के पास गया, पर उसकी गोद में था छोटा भाई, फिर वही प्रेम की प्रतिद्धंद्धिता। उसने अपने छोटे भाई  के साथ फि रूखा और शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया।

इस बार मां ने छोटे बच्चे का पक्ष लिया और बडे़ को झिड़ककर अलग कर दिया, मानो यह बताना चाहती हो कि भावनाओं की भूख उचित तो है,पर औरों की इच्छा का भी अनुशासनपूर्वक आदा करना चाहिए। दंड पाकर बड़ा बच्चा ठीक हो गया, अब उसने अपनी भावनाओं की परितृप्ति का दूसरा उचित तरीका अपनाया । वह मां के पास उसके शरीर से सटकर बैठ गया। मां ने भावनाओं की सदाशयता को समझा और अपने उद्धत बच्चे के प्रति स्नेह जताया, उससे भी उद्धेग दूर हो गया। थोड़ी देर में वह अपने पिता के कंधों पर जा बैठा। कुछ दिन के पीछे तो उसने समझ लिया  कि स्नेह , सेवा दया, मैत्री ,करुणा, उदारतर, त्यराग सब प्रेम के ही रूप हैं,सो अब उसने अपने छोटे भाई से भी मित्रता कर ली। इस तरह एक पारिवारिक-विग्रह फिर से हंसी-खुशी के वातावरण में बदल गया। छोटे कहे जाने वाले इन नन्हे-नन्हे जीवों से यदि मनुष्य कुछ सीख पाता तो उसका आज का जलता हुआ व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन भी कैसे भी परिस्थितियों में स्वर्गीय सुख और संतोष का रसास्वादन कर रहा होता।

(यह अंश आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा रचित पुस्तक ‘विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व’ से लिए गए हैं।)