लेकिन आशंकाएं भी गंभीर…!

यदि देश के प्रधानमंत्री के आश्वासनों और कथनों पर भरोसा नहीं है, तो लोकतंत्र और संविधान भी सवालिया हैं। हमारे गणतंत्र में प्रधानमंत्री को सर्वोच्च कार्यकारी अधिकारी का दर्जा दिया गया है। उसी में असीमित अधिकार निहित हैं। लोकतंत्र में प्रधानमंत्री और उसकी सरकार के फैसलों और नीतियों पर खूब सवाल दागे जा सकते हैं, विरोध भी प्रकट किया जा सकता है, लेकिन अंतिम समाधान तो प्रधानमंत्री या उसके प्रतिनिधि मंत्रियों के आश्वासनों में ही निहित हैं। देश की जनता के बहुमत ने प्रधानमंत्री को चुना है। यदि उनके आश्वासनों को ही खारिज किया जाता रहेगा अथवा सरकार पर झूठ बोलने का मुलम्मा चढ़ाया जाता रहेगा, तो समाधान असंभव है।

विश्व युद्ध के बाद शांति और स्थिरता का समाधान भी संवाद से ही निकला था। दूसरी तरफ  कुछ मंत्रियों, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल और भाजपा प्रवक्ताओं ने अपनी परंपरागत शैली के मुताबिक, किसान आंदोलन में कुछ ‘अवांछित तत्वों’, ‘नक्सलवादी’ या ‘खालिस्तानी’ किस्म के चेहरों की मौजूदगी के आरोपिया विशेषण उछाले हैं। यह प्रवृत्ति किसी भी संवाद और समाधान की संभावना को ध्वस्त कर सकती है। कहा जा रहा है कि किसानों को बरगलाया, भरमाया जा रहा है। ऐसी टिप्पणियां भी अपमानजनक और किसानों को कमतर आंकने की प्रवृत्ति हैं। वैसे प्रधानमंत्री मोदी ने छल करने और भ्रम फैलाने की बात कही है, लेकिन वह बुनियादी तौर पर कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली यूपीए सरकार पर प्रहार किया गया है। किसानों के लिए एमएसपी का कानूनी दर्जा और देश भर में करीब 48,000 मंडियां विकसित करने के मुद्दे ही अहम हैं। अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में स्थानीय मुद्दों पर प्रधानमंत्री का संबोधन कम रहा, लेकिन उन्होंने भरोसेमंद आवाज में, आंकड़ों के जरिए, यह सत्य स्थापित करने का प्रयास किया कि एमएसपी पर सरकारी खरीद जारी है और नए कानूनों में मंडियों पर कोई भी रोक नहीं है। यदि बीते 5 सालों के दौरान 49,000 करोड़ रुपए की दालें और 3 लाख करोड़ रुपए की गेहूं खरीदी गई हैं और पिछली सरकार की तुलना में खरीद कई गुना ज्यादा है, तो किसानों को भरोसा करना चाहिए। बेशक हमारे किसानों की फसलें विदेशों में भी निर्यात हो रही हैं, लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि मक्का, धान, ज्वार-बाजरा, सब्जियां, फल आदि की फसलें एमएसपी के 50 फीसदी या उससे भी कम कीमत पर खरीदी जा रही हैं। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर का दावा है कि 2014 में मोदी सरकार आने के बाद से लेकर अब तक 7 लाख करोड़ रुपए की सरकारी खरीद की जा चुकी है, जो एक कीर्तिमान है। फिर भी किसान बार-बार मांग कर रहा है कि सरकार एमएसपी को कानूनी दर्जा दे और उसकी बाध्यता कानूनन कर दे।

हम भी लगातार अपने विश्लेषण में सवाल उठाते रहे हैं कि एमएसपी को कानूनी अधिकार बनाने में सरकार को क्या दिक्कत है? यह प्रशासनिक है और बार-बार संविधान संशोधन करना व्यावहारिक नहीं है, सरकार और भाजपा की ऐसी दलीलें टालने की प्रवृत्ति हैं, क्योंकि एमएसपी में संशोधन बार-बार नहीं किया जाता। इसका रास्ता निकाला जा सकता है, लेकिन कॉरपोरेट कंपनियों की भूमिका को लेकर किसानों की आशंकाएं और सवाल भी बेहद गंभीर हैं। कॉरपोरेट बहुत ताकतवर क्षेत्र है। किसान नेताओं की बुनियादी आशंका है कि मान लो, किसी कंपनी ने किसान की 4 करोड़ रुपए की फसल खरीद ली और पूरा भुगतान तय तारीख पर नहीं किया गया, तो किसान किसकी दहलीज़ खटखटाएगा? कानून के मुताबिक, एसडीएम और अंततः कलेक्टर या उपायुक्त से इंसाफ  की उम्मीद बेहद कम है, क्योंकि वे सरकार के इशारों पर ही काम करते हैं और सरकारों में कॉरपोरेट का बहुत दखल होता है। कृषि कानूनों में बड़ी अदालतों तक जाने का कोई प्रावधान नहीं है। यह तो न्याय के मौलिक अधिकार से वंचित रखने सरीखा निर्णय है, जबकि छोटे से छोटे अपराध के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय तक गुहार की जा सकती है, तो कृषि कानूनों में ये प्रावधान क्यों नहीं हैं? किसान कॉरपोरेट का दखल न्यायसंगत कराना चाहते हैं। बहरहाल सरकार और किसानों के बीच संवाद की संभावनाएं बनी हैं, तो लगता है कि तमाम आशंकाओं और सवालों को संबोधित किया जाएगा।