एक मुर्गी, अनेक मुर्गियां

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

हम दोनों धूप में बैठे अ़खबार पढ़ रहे थे। अचानक मेरी नज़र उस कॉलम पर पड़ी, जिसमें बैंकों के लाखों-करोड़ों रुपए के एनपीए के बारे में बताया गया था। मैंने हैरानगी जताते हुए कहा, ‘‘पंडित जी! हम जैसे नौकरीपेशा को एक रुपए का ़कज़र् देते हुए भी सभी बैंकों को वैसे ही एतराज़ होता है, जैसे कोई ़खूबसूरत लड़की किसी भैंगे लड़के के प्रपोज़ करने पर करती है। फिर इतनी बड़ी ऱकम कैसे एनपीए में बदल गई?’’ पंडित जी अलसाई धूप में किसी नशेड़ी की तरह सिर उठाते हुए बोले, ‘‘मियां! बैंकों के ये तमाम चोंचले अपने आकाओं को ़खुश करने, छोटे-बड़े मगरमच्छों को शिकार खिलाने और अपना माल बनाने के लिए होते हैं। नोटबंदी के दौरान आम आदमी के करोड़ों तो सैंकड़ों में होने के बावजूद डूब गए लेकिन जो बैंक वाले लाखों के साथ पकड़े गए, उनका क्या? कितने आम आदमी देश सेवा करते हुए कतारों में शहीद हो गए लेकिन किसी एनपीए वाले को लुढ़कते देखा? चलो! मैं तुम्हें तब की कथा सुनाता हूं, जब मैं बेरोज़गार था और परबत के पीछे चंबे के गांव में रहता था। पता नहीं गांव में दो प्रेमी थे या नहीं, लेकिन मैं अपने माता-पिता और छोटे भाई के साथ रहता था।

 ़गरीबी साए की तरह साथ रहती थी। एक दिन मामा कहने लगे कि अली तुम्हारे थोड़े-बहुत खेत तो हैं ही, तुम बैंक से लोन लेकर मुर्गियां क्यों नहीं पाल लेते। उस समय बैंक भी थोड़े थे। सो गांव से ़करीब सौ मील दूर ज़िला मुख्यालय में लोन के लिए आना पड़ा। पहले तो बैंक में घुसते हुए ही डर लग रहा था। फिर सोचा कि यह तो सेवा का मंदिर है। बैंक की चौखट को तीन बार दंडवत कर जब भीतर घुसा तो पता चला कि लोन अ़फसर वसूली के लिए बाहर गया है। कल मिलेगा। रात को सराए में रुकने के बाद दूसरे दिन बैंक पहुंच कर, लोन अ़फसर को अपनी दरख्वास्त पेश की। वह मुझे एक फॉर्म देते बोला, इसे भरो और सभी औपचारिकताओं को पूरा कर, बैंक में जमा करवा दो। फिर पूछने लगा कि लोन कितना और किसलिए चाहिए? गाय ़खरीदनी है या भैंस, खेती के लिए औज़ार चाहिए या कोई और काम शुरू करना है? तुम्हारी ज़मीन कितनी है? आमदन कितनी है? मैंने कहा कि अगर आमदन होती तो आपके पास क्यों आता? वह बोला, तुमसे यह किसने कह दिया कि बैंक में सि़र्फ बे-आमदन आते हैं। यहां तो बे-आमदन और लुच्चे सभी तरह के लोग आते हैं।

 लेकिन लोन उन्हीं को मिलता है, जिन्हें लोन लेने के तौर-तरी़के आते हैं। अब तुम देखो कि बे-आमदन ही रहना चाहते हो या ….? तुम्हारे लोन पास होने की मियाद और ऱकम, तुम्हारे तौर-तरी़कों पर निर्भर करेगी। मैंने कहा, सर! तीन हज़ार लेने हैं, मुर्गियां ़खरीदने के लिए। वह बोला, ठीक है, फॉर्म भरने के साथ, ज़मीन का पर्चा, मुर्गियों की अनुमानित लागत, पटवारी की तसदी़क, गॉरन्टर व़गैरह-व़गरैह की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद आ जाना। इतना सब करने के बाद भी वह मुझे किसी न किसी बहाने टरकाता रहा। मेरे अब तक दस चक्कर लग चुके थे। कई बार मुझे रात को ज़िला मुख्यालय रुकना भी पड़ता। मुझे जितना लोन चाहिए था, उससे ज़्यादा तो गांव वालों का उधार हो चुका था।  हार-थक, मैंने लोन अ़फसर से लुच्चेपन की ़कीमत पूछी तो बोला, पूरे एक हज़ार। मैंने गुणा-भाग किया तो पता चला कि तीन हज़ार का लोन लेने के लिए अभी तक चार हज़ार ़खर्च कर चुका हूं। इस तरह मैं उसे प्रणाम करने के बाद बाहर आ गया।’’ उधर, मैं सोच रहा था कि बे-आमदन रहना बेहतर या लुच्चा होना?