श्रद्धांजलि : मौन हो गईं साहित्य साधिका संतोष शैलजा

डा. सुशील कुमार फुल्ल

मो.-9418080088

कोविड-19 की महामारी ने वर्ष 2020 को हर प्रकार से तहस-नहस कर दिया, मानो सारी दुनिया एकाएक ठहर गई हो। साहित्य किसी भी विपत्ति में सांत्वना एवं मरहम का काम करता है, परंतु साहित्यकार भी इसकी चपेट में आ गए हों तो दूसरों को कैसी सांत्वना और कैसी हलाशेरी। शांता कुमार और संतोष शैलजा की साहित्यकार दम्पति की जोड़ी एक आदर्श जोड़ी के रूप में प्रख्यात रही है, ऐसा युग्ल जिसने साहित्यकारों को प्रोत्साहित करने में अग्रणी भूमिका निभाई और धर्मवीर भारती, पुष्पा भारती तथा उपेंद्रनाथ जैसे बड़े साहित्यकारों को हिमाचल में बुलाकर हिमाचल की महिमा को दर्शाया तथा हिमाचल के साहित्य को राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने का काम किया। दोनों ने खूब जमकर लिखा और ख्याति अर्जित की।

दोनों की पहली संयुक्त पुस्तक कहानी संग्रह ‘पहाड़ बेगाने नहीं होंगे’ सन् 1977 में प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक ही इसके प्रतिपाद्य का सूचक था। इसका विमोचन ‘पंजाब केसरी’ के प्रधान संपादक लाल जगत नारायण जी ने किया था, पालमपुर की एक जनसभा में। दोनों लेखकों का परिचय करवाने का श्रेय या सौभाग्य मुझे मिला था। शैलजा जी का पहला साक्षात्कार मैंने 1978 में किया जो गिरिराज में प्रकाशित हुआ था। तब भी शैलजा जी की अवधारणाएं बड़ी स्पष्ट थीं।

भारत की महिला लेखकों में संतोष शैलजा ने अपनी पहचान सर्वप्रथम ‘जौहर के अक्षर’ पुस्तक के प्रकाशन के साथ बनाई। इस पुस्तक में भारतीय वीरांगनाओं के शौर्य की कहानियां संकलित थीं। उनका यही तेवर उनकी अन्य रचनाओं में विद्यमान रहा। कनक छड़ी, अंगारों में फूल, निन्नी, सुन मुटियारे उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। जौहर के अक्षर, ज्योतिर्मयी, पहाड़ बेगाने नहीं होंगे तथा टाहलियां चर्चित कहानी संग्रह हैं। इनकी एक नई कहानी ‘सपनों को छोड़ना नहीं’ अभी हाल ही में मैंने प्रकाशनाधीन ‘हिमाचल की यादगार कहानियां’ में इनकी इच्छानुसार ली है, जो जीवन में आस्था एवं शालीनता का पाठ पढ़ाती है। इनकी हर रचना में कोई न कोई संदेश होता है।

आ प्रवासी मीत मेरे, कुहुक कोयलिया इनकी मर्मस्पर्शी कविताओं के संग्रह हैं। धौलाधार, हिमाचल की लोककथाएं आदि इनकी अन्य पुस्तकें हैं। इन्होंने अपनी पुस्तकों का अनुवाद स्वयं ही अंग्रेजी में करके दोनों भाषाओं पर अपनी पकड़ का सबूत भी दिया है। मेरा और मेरे परिवार का साहित्यकार दम्पति परिवार से नाता कोई 53 वर्ष पुराना रहा है। शांता कुमार जी के संघर्ष को मैंने देखा है और किस प्रकार शैलजा जी उनके साथा कंधे से कंधा मिलाकर उनकी शक्ति बनी रहीं, यह इतिहास की बात है, लेकिन मैं मानता हूं कि शैलजा जी ने सदा अपने पति के हित को ही ध्यान में रखा और स्कूल में नौकरी करनी पड़ी तो सहर्ष कभी पोर्टमोर में और कभी कंडबाड़ी में और फिर पालमपुर में सदा तत्पर रहीं। इनकी दो बेटियां मेरी छात्राएं थीं, यूनिवर्सिटी में इंदु और रेणू एस कुमार। दोनों पर शैलजा के संस्कार दिखाई देते थे।

शांता कमार की वक्ता शैली दोनों में स्पष्ट झलकती थी। शायद कम ही लोग जानते हैं कि शैलजा की एक कहानी ‘रज्जो काकी’ कृषि विश्वविद्यालय की हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘हिंदी की कालजयी कहानियां’ में वर्षों तक पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती रही थी। यामिनी परिसर साहित्यकारों के लिए सदा आकर्षण का केंद्र एवं प्रेरणा का स्रोत रहा। राधारमण शास्त्री जी एक लोकगायक की कैसेटों का विमोचन करने कुछ वर्ष पूर्व पालमपुर में आए तो रचना साहित्य एवं कला मंच के सहयोग से भव्य आयोजन यामिनी परिसर में हुआ और सारा आतिथ्य-भार विक्रम शर्मा ने सहर्ष स्वीकार किया तथा आशीर्वाद शैलजा जी और शांता कुमार का ही रहा। ऐसी उदारमना मनीषी कवयित्री, कथाकार का अचानक चले जाना मन में एक अवसाद छोड़ जाता है, जिसकी भरपाई संभवतः हो ही नहीं सकती। सदा प्रचार से दूर रहकर दूसरों को प्रोमोट करने की प्रवृत्ति वाली मौन साधिका जैसी देवी का अवसान परंपरागत मान्यताओं एवं सुसंस्कृत आचार-व्यवहार के पटाक्षेप का सूचक है। परिवार के लिए ही नहीं, साहित्य जगत के लिए भी यह अपूर्णीय क्षति है। शत्-शत् अश्रुपूर्ण नमन।