विष्णु पुराण

चकार संहिताः पञ्च शिष्येभ्य प्रददो च ताः।

तस्य शिष्यास्तु ते पंच तेषां नामानि मे शृणु।।

मुद्गलो गोमुखश्चैव वात्स्यश्शालीय एवं च।

शरीरः पञ्चमश्चासन्मैधेय महामतिः।।

संहितात्रितयं चक्रे शाकपूर्ण स्तथेतरः।

निरुक्तमकरोत्तद्वेचच्तुर्थे मुनिसत्तम्।

क्रोञ्चो वैतालिकस्तद्वद्बलाकश्च महामुनिः।

निरुक्तकृच्च सुर्थोऽभद्वैदवेद्रांगपारंगः।।

इत्येताः प्रतिशाखाभ्य हृनुशाखा द्विजोत्तम्।

वाष्कलश्चापरा स्तिश्रस्संहिताः कृतवान्द्विज।।

शिष्यः कालायनिर्गाग्सस्ततीयश्च कथाजः।

इत्येते बहवृचाः प्रोक्ता यैः प्रवर्तिताः।।

इसके पश्चात शाकल्य वेदमित्र ने उस शाखा की अनुशाखाएं की और अपने पांच शिष्यों को उनका अध्ययन करवाया। उनके नाम सुनो। मुद्गल, गोमुख, वात्स्य, मालीय और पांचों अत्यंत बुद्धिमान शिष्य थे। हे मुने! उनके एक शिष्य शाकपूर्ण ने तीन वेद संहिताओं को तथा एक निरुक्त ग्रंथ को रचा था। महामुनि क्रोंच वैतालिक और बालक नामक शिष्यों ने तीनों संहिताओं का अध्ययन किया तथा उनके एक चुतर्थ शिष्य ने वेद-वेदांग में पारंगता प्राप्त की। इस प्रकार वेद वृक्ष की शाखाओं से प्रति शाखाएं और उनसे अनुशाखाएं उत्पन्न हुईं। हे द्विजोत्तम! वाष्कल ने अन्य तीन संहिताओं की भी रचना की थी। कालायनि, कार्य और कथा जब उनके शिष्य थे। जिन्होंने इन संहिताओं का प्रसार किया, वे वृच कहकर विख्यात हुए।

पांचवां अध्याय

यजुर्वेदकरोऽशाखासप्तविशन्महामुनिः।

वैशम्पायननग्मासो व्यासशिष्य श्चकार वै।।

शिष्येभ्यः प्रददो ताश्च जगृहुस्तेऽप्यनुक्रमात्।

याज्ञवस्व्यस्तु तत्राभूद् ब्रह्मरासुतो द्विज।।

शिष्यः पमधर्मज्ञो गुरुवृत्तिपरस्सदा।

ऋषिर्योऽद्य महामेरोः समाजे नायामिष्यति।।

तस्य वै यप्तरात्रात्त ब्रह्महत्या भविष्यति।

पूर्णमेव मुनिगणैस्स्मयो यः कृतो द्विजः।।

वैशम्पायन एकस्तु त व्यतिक्रान्दबांस्तथा।

स्वस्त्रोय बालक सोऽथ सदा स्पृष्टमधाततत्।।

शिष्यानाह स भो शिष्या ब्रह्महत्यापह व्रतम्।

चरध्वं सत्कुते सर्वे न विचार्यमिदं तथा।।

अथाह याद्धवल्क्यस्त किमेभिभगवन्दिजोः।

क्लेशितैरल्पतेजोभिश्चरिष्येऽहमिदं व्रतम्।।

हे महामुने! व्यास शिष्य वैशम्पापयन जी ने यजुर्वेद रूपी वृक्ष की सत्ताइस शाखाओं को रचा। वे शाखाएं अपने शिष्यों को पढ़ाई तथा शिष्यों ने उन्हें क्रमशः ग्रहण किया। हे विप्र! उनका एक परम धार्मिक शिष्य ब्रह्मरात-पुत्र याज्ञवल्क्य था, जो सदा ही गुरु सेवा में तत्पर रहता था। जो महामेरु स्थित हमारे समाज में सम्मिलित न होगा, उसे सात रातों में ब्रह्महत्या लगेगी। इस प्रकार मुनियों ने पहले निश्चित किया था, परंतु उनके उस नियम का सर्वप्रथम वैशम्पायन ने ही उल्लंघन किया था। इसके पश्चात उसका चरण छू जाने मात्र से उसके भानजे की मृत्यु हो गई।