एक नई विकास थ्योरी की पहचान

सुरेश सेठ

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लगता है भारत ही नहीं, पड़ोसी देश भी डारविन महोदय के सिद्धांत को गलत सिद्ध करने पर तुल गए हैं। डारविन महोदय ने कहा था, इन्सान का विकास इतिहास बतलाता है कि उसके पूर्वज कभी वानर और चिम्पैंजी थे, फिर वनमानुस बने और अंततः इन्सान के रूप में नज़र आए। पहले चौपाये थे, चलने के लिए हाथों और पैरों दोनों का इस्तेमाल करते थे, अब तरक्की करके दो पैरों पर चलने लगे। बाहों का इस्तेमाल अब बड़े आदमियों के सामने हाथ जोड़ घिघियाने या नेताओं के वंशजों को गद्दी पर बिठाने के लिए जयघोष के रूप में बाहें उछालने के लिए होता है। लेकिन ज्यों-ज्यों अपनी-अपनी कुर्सी हथियाने की चिल्ल पों बढ़ती जाती हैं, त्यों-त्यों करोड़ों काम कर सकने वाले हाथ और भी निहत्थे हो जाते हैं। और आदमी को दो पायों के स्थान पर चौपाये का रूप अपनाना पड़ता है। क्योंकि जब कोई आम आदमी व्यावसायिक घरानों का कलपुर्जा या सत्ता का दलाल न बन सके तो उसे सम्पन्न के सामने क्रीत दास बनकर जि़न्दा रहने की भीख मांगनी पड़ती है। लेकिन जो चौपाये न बन सके, उसके सामने खड़े वृक्षों की चोटी आमंत्रण देती है कि ‘आओ यहां आकर फंदा ले लो’।

 फिर भी इसे आत्महत्या कहकर कोई तुम्हें हमदर्दी के मुआवज़े नहीं बांटेगा। अरे यहां तो ऐसी मौतों के लिए कोई शोक प्रस्ताव भी पारित नहीं होता। ऐसी आत्महत्याओं को गिन लोगे तो देश के रुतबे का भुखमरी सूचकांक में और भी पतन हो जाएगा। अपने आपको विकास पथ पर विश्व में सबसे तेज़ गति से भागने का सेहरा बांधने की चाह रखने वाला यह देश तब अपने बाजुओं पर काली पट्टी का  अश्रुपात बांध ले क्या? कह दो सबसे कि यह मौत अपच से, दुर्घटना से, व्यक्तिगत लड़ाई-झगड़े में हो गई।

 पिछले छह वर्षो से आत्महत्याओं की गिनती बंद करके हमने अपनी क्रांतियों के सिंहनाद पर असफलता का ठप्पा नहीं लगने दिया। यह दूसरी बात है कि आदमी इस बीच भूख से दुहरा होकर दो पाये से चौपाया बन गया। फिर भी वे दिन बदल जाने के अथवा अच्छे दिन आ जाने के सपने देखना बंद नहीं करता। देश में उभरते हुए नए विकास सिद्धांत की जात निराली है। आदमी इस देश में बच्चे से सीधा बूढ़ा होता है क्योंकि उसकी जवानी को व्यवस्था की निस्संगता, अथवा दीमक लगे असफल सपनों की जीर्ण-शीर्ण अवस्था खा जाती है। आज तीसरी दुनिया के देशों में एक प्रतियोगिता जारी है कि यहां डारविन साहिब का मत मानते हुए जानवर से आदमी बनने की गति अधिक तीव्र है अथवा आदमी से जानवर बनने की। तीसरी दुनिया के देश गर्व कर सकते हैं कि उनके यहां इन्सानों की संख्या बढ़ने से अधिक जानवरों की संख्या बढ़ रही है। दुनिया भर के देशों के मुकाबले में भारत में जानवरों की संख्या सबसे अधिक है। लेकिन जानवरों की इस भीड़ को हम पशुधन नहीं कह सकते। इनमें शामिल हैं निर्बल, कमज़ोर, बीमार और निठल्ले जानवर। कभी-कभी तो संदेह होने लगता है कहीं ये वे करोड़ों असमय नौजवान तो नहीं जो वर्षो की बीमारी, बेकारी ङोलने के बाद अब लगभग जानवर हो गए हैं। जानवर होने के बाद भी उन्हें अपना कोई भविष्य नज़र नहीं आता क्योंकि शक्ति संवर्धन की कमी या मांग की कमी और बढ़ती महंगाई के कारण बहुत से कल कारखानों के मुंह पर अलीगढ़ी ताले लग गए।